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महिला दिवस विशेषः पहाड़ जैसी समस्याओं से भी हार नहीं मानी दन्या की गिदार आमा ने

By Khajan Pandey

अक्सर महिला दिवस पर महिलाओं की बात करते हुए हमारे जेहन में किसी राजनैतिक, व्यवसायिक, सामाजिक तथा आर्थिक क्षेत्र में सशक्त महिलाओं की तस्वीर उभर कर आती है। निश्चित ही उनके द्वारा सफलता की ऊंचाईयों को छुआ गया है और कठिन परिश्रम के ज़रिए सफलता के नए आयाम भी स्थापित किए गए हैं जिसके वो सच्चे हकदार भी हैं। लेकिन इनके अलावा भी हमारे आस-पास में कई महिलाएं हैं जिन्हें घर-परिवार की जिम्मेदारी के बाद अपने समाज के लिए हम विशेष करते हुए देखते तो हैं लेक़िन सफलता की श्रेणी में उन्हें देख नहीं पाते और संभवत: उनके द्वारा किये जा रहे कार्यों और उसमें उनके योगदान की अनदेखी कर देते हैं।

आज महिला दिवस पर मैं आपको एक ऐसी वृद्ध महिला के बारे में बताने जा रहा हूँ जिन्हें दन्या (अल्मोडा, उत्तराखंड) और उसके आस-पास के गाँववासी ‘गिदार आम्म ‘ ( गीत गाने वाली अम्मा) नाम से जानते हैं।  वैसे तो उनका नाम जयंती देवी है लेकिन ज्यादातर लोग उन्हें गिदार आम्म नाम से जानते हैं। आस-पास के लगभग सभी शुभ कार्यों ( नामकरण, उपनयन, शादी ) में गाए जाने वाले गीतों जिन्हें हम कुमाऊ में शगुनाखर और गढ़वाल में मांगलिक गीतों के रूप में पहचानते हैं में वह अपनी एक विशेष पहचान रखती हैं।

शगुनाखर शगुन तथा आखर शब्द से मिलकर बना है। शगुन से आसय शुभ कार्य से है और आखर यानि उसके अक्षर अथवा बोल।  शगुनाखर मतलब शुुुभ कार्यों के अक्षर, बोल अथवा गीत…यह एक तरह की प्रार्थना गीत हैं जिसे शुभ कार्यों की पूर्ति, परिवार के सुख-समृद्धि की कामना में देवी-देविताओं के आहवान स्वरूप गाया जाता है। पारंपरिक शुभ कार्यों में महिलाओं की जोड़ी द्वारा ये गीत बगैर किसी वाध्य यंत्रों के एक ख़ास लय में गाए जाते हैं। हालाँकि यह परम्परा सदियों पुरानी है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कुछ प्रसिद्ध लोगों द्वारा इसे गाए जाने और उसे सोसिअल साइट्स में अपलोड करने के चलते इसका प्रचार-प्रसार उत्तराखंड से बाहर भी देखने को मिला है। निमंत्रण से जुड़ा शगुनाखर “सुआ रे सुआ, वनखण्डी सुआ, जा सुआ नगरिन न्यूत दि आ” पिछले दिनों काफी प्रसिद्ध भी हुआ। मौखिक परम्परा के रूप में ये गीत किसी ना किसी रूप में लगभग पूरे भारत मे गाए जाते रहे हैं। आज बेशक इनका लिखित रूप भी बाजार में उपलब्ध हो जाता हो फिर भी इसको सीखने की, गाने की परम्परा आज भी मौखिक ही है।

आमा बताती हैं शादी के बाद से अपनी सास व अन्य महिलाओं के साथ संगत करते हुए वो यह कार्य सीखीं हैं। लगभग 52 वर्ष पूर्व पति के देहान्त के बाद से वो अपना तथा परिवार का भरण पोषण इसी लोक-कला, संस्कृति के माध्यम से कर रही हैं। दन्या व आस-पास की बहुत सी महिलाएं आज इस कला के संरक्षण व इसे आगे बढ़ाने के कार्यों से जुटी हुई हैं किन्तु इस लोक कला की जानकार  व उम्र में सबसे अधिक ‘गिदार आम्म’ आज 88 वर्ष की हो चुकी हैैं। आस-पास नजदीक के गाँव में उन्हें अभी भी बुलाया जाता है लेकिन दूर के गांव में जा पाना उनके लिए अब सम्भव नहीं। अपने बारे में बताते हुए वो भावुक हो उठती हैं। उनके परिवार में उनका एकलौता बेटा और बहु हैं, जो निसंतान हैं। संतान की आस अब पूरी तरह छूट चुकी है। इकलौते बेटे की मानसिक बीमारी जो लगभग 14-15 वर्ष पूर्व से है के इलाज और दवाई आदि के खर्च में उन्हें अपनी कुछ जमीन भी बेचनी पड़ी। अपने दुःख को साझा करते हुए वो कहती हैं – “आपुण जमीन कैं को बेचोल पोथी लेकिन मजबूरी जै हैगे क्ये कर सकनु.” ( अपनी जमीन को कौन बेचेगा बेटे लेकिन मजबूरी जो हो जाए तो क्या कर सकते हैं )। एक दुःख का पहाड़ अपने मन मस्तिष्क में लिए, जिन्दगी की जद्दोजहद में आज भी उनकी दौड़-भाग जारी है। बेटे की बीमारी, दवाई आदि का खर्च और आगे की चिंताएं बरकरार हैं। वो चाहती हैं उनके बेटे की मानसिक बीमारी को देखते हुए यदि कुछ आर्थिक सहायता और बेटे की मानसिक विकलांग पेंशन लग जाती तो थोड़ा निश्चिंत हो जाती। इसके लिए उन्होंने थोड़े-बहुत प्रयास भी किये लेकिन अब तक कुछ भी नहीं हो पाया।

खजान पाण्डे दिल्ली में रहते हैं ,वह मूलरूप से उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के दन्या निवासी हैं।

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