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संयुक्त राष्ट्र संघ रेसिपी बुक में ठटवाणी और चौलाई के लड्डू शामिल

Dr  Harish Chandra Andola

पहाड़ में मारसा, चौलाई या रामदाना के हरे साग (पत्तों) का रायता खाने की परंपरा पीढ़ि‍यों से चली आ रही है। ‘उत्तराखंड में खानपान की संस्कृति’ में हैं कि यह रायता स्वादिष्ट होने के साथ ही पौष्टिक भी होता है। लौह तत्व इसमें काफी अधिक मात्रा में पाया जाता है। उस पर यह पहाड़ का बेहद सस्ता एवं आसान भोजन है। कारण, मारसा खेतों में अपने आप उग जाता है और इसका रायता बनाने के लिए अतिरिक्त साधन भी नहीं जुटाने पड़ते। इसके अलावा बथुवा, पहाड़ी आलू और साकिना की कलियों के रायते का भी अपना अलग ही मजा है। 

पोषक तत्व व स्वाद से भरपूर ठटवाणी (thatwani )अब संयुक्त राष्ट्र संघ के विश्व कृषि संगठन की माउंटेन पार्टनरशिप की रेसिपी बुक में स्थान बनाने में सफल हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के संगठन फूड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) के माउंटेन पार्टनरशिप प्रोग्राम के अंतर्गत माउंटेन रेसिपी बुक जारी की गई। इस बुक में ठटवाणी के साथ ही चौलाई के लड्डू (chaulai ladoos) को भी स्थान मिला है। दरअसल एफएओ की ओर से अंतरराष्ट्रीय माउंटेन दिवस 11 दिसंबर-2019 के उपलक्ष्य में प्रतियोगिता आयोजित कराई, जिसमें भारत समेत दुनिया के सभी देशों के पर्वतीय इलाकों के पारंपरिक व पौष्टिक व्यंजनों को लेकर प्रविष्टियां मांगी गई थीं। दुनिया के 27 देशों से 70 से अधिक प्रविष्टिïयां मिलीं। जिसमें से शीर्ष 30 व्यंजनों को चयनित कर परिणाम जारी कर दिया गया। कुमाऊं के नैनीताल, अल्मोड़ा से लेकर बागेश्वर, पिथौरागढ़ व चम्पावत के गांव व शहरों के अलावा पर्वतीय मूल के लोग इस डिश को बड़े चाव से खाते हैं।

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वैज्ञानिक बताते हैं कि ठटवाणी में कॉपर, प्रोटीन, आयरन, विटामिन के साथ बसा के पर्याप्त पोषक तत्व होते हैं। कुमाऊं में ठटवाणी के साथ ही भट की चुड़कानी प्रसिद्ध डिश है। चौलाई आमारान्थूस्), पौधों की एक जाति है जो पूरे विश्व में पायी जाती है। अब तक इसकी लगभग ६० प्रजातियां पाई व पहचानी गई हैं, जिनके पुष्प पर्पल एवं लाल से सुनहरे होते हैं। गर्मी और बरसात के मौसम के लिए चौलाई बहुत ही उपयोगी पत्तेदार सब्जी होती है। अधिकांश साग और पत्तेदार सब्जियां शित ऋतु में उगाई जाती हैं, किन्तु चौलाई को गर्मी और वर्षा दोनों ऋतुओं में उगाया जा सकता है। इसे अर्ध-शुष्क वातावरण में भी उगाया जा सकता है पर गर्म वातावरण में अधिक उपज मिलती है। इसकी खेती के लिए बिना कंकड़-पत्थर वाली मिट्टी सहित रेतीली दोमट भूमि उपयुक्त रहती है। इसकी खेती सीमांत भूमियों में भी की जा सकती है चौलाई का सेवन भाजी व साग (लाल साग) के रूप में किया जाता है जो विटामिन सी से भरपूर होता है। इसमें अनेकों औषधीय गुण होते हैं, इसलिए आयुर्वेद में चौलाई को अनेक रोगों में उपयोगी बताया गया है। सबसे बड़ा गुण सभी प्रकार के विषों का निवारण करना है, इसलिए इसे विषदन भी कहा जाता है। इसमें सोना धातु पाया जाता है जो किसी और साग-सब्जियों में नहीं पाया जाता। औषधि के रूप में चौलाई के पंचाग यानि पांचों अंग- जड, डंठल, पत्ते, फल, फूल काम में लाए जाते हैं।

इसकी डंडियों, पत्तियों में प्रोटीन, खनिज, विटामिन ए, सी प्रचुर मात्रा में मिलते है। लाल साग यानि चौलाई का साग एनीमिया में बहुत लाभदायक होता है। चौलाई पेट के रोगों के लिए भी गुणकारी होती है क्योंकि इसमें रेशे, क्षार द्रव्य होते हैं जो आंतों में चिपके हुए मल को निकालकर उसे बाहर धकेलने में मदद करते हैं जिससे पेट साफ होता है, कब्ज दूर होता है, पाचन संस्थान को शक्ति मिलती है। छोटे बच्चों के कब्ज़ में चौलाई का औषधि रूप में दो-तीन चम्मच रस लाभदायक होता है। प्रसव के बाद दूध पिलाने वाली माताओं के लिए भी यह उपयोगी होता है। यदि दूध की कमी हो तो भी चौलाई के साग का सेवन लाभदायक होता है। इसकी जड़ को पीसकर चावल के माड़ (पसावन) में डालकर, शहदमिलाकर पीने से श्वेत प्रदर रोग ठीक होता है। जिन स्त्रियों को बार-बार गर्भपात होता है, उनके लिए चौलाई साग का सेवन लाभकारी है।

लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं

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