By Ashish Gore, Bengaluru
स्वतंत्र भारत के महानायकों की सूची में गौरवपूर्ण स्थान अर्जित करने वाले देश के दूसरे प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री. लाल बहादुर शास्त्री जी की आज 56वीं पुण्य तिथि है। इस अवसर पर पूरा देश उन्हें नमन कर रहा है। मैंने जिस तरह उनके बारे में सोचा और महसूस किया, इस लेख के जरिए जानते हैं। लाल बहादुर शास्त्री का 11 जनवरी 1966 को ही निधन हुआ था। शास्त्री जी के बारे में बहुत कुछ बचपन से सुना था और उनके कामों, जीवन मूल्यों के प्रति कर्मठता, संकल्पों और उपलब्धियों को समीप से देखने और समझने की वर्षों पुरानी मेरी चाह ही मुझे नई दिल्ली के 1 मोतीलाल प्लेस और 1 जनपथ पर स्थित “लाल बहादुर शास्त्री” स्मारक पर खींच कर लाई थी।
मन में कुतूहल, श्रद्धा, दिलचस्पी और प्रेरणा इनका संयुक्त भाव था। स्मारक के प्रवेश द्वार के पास शास्त्री जी की अर्ध-प्रतिमा उनकी चिर-परिचित भावभंगिमा लिए थी, आकर्षक प्रतिमा के सामने शीश झुकाने में गौरव का अनुभव अनायास ही हुआ। अब स्मारक के अंदर जाने की जिज्ञासा थी, स्मारक उस बंगले में बना है, जहां शास्त्री जी लगभग 13-14 वर्ष बतौर केंद्रीय मंत्री और प्रधानमंत्री रहा करते थे।
स्थान का इतिहास, महत्व और वातावरण हृदय के स्पंदन को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था। शास्त्री जी की स्मृतियों को यहां बड़े अच्छे ढंग से संजोकर रखा गया है। अनेक चित्रों की एक श्रृंखला, प्रदर्शनी के रूप में बंगले के विभिन्न कमरों में चित्रों के संक्षिप्त विवरण के साथ सजाई गई है। शास्त्री जी का महान व्यक्तित्व इन चित्रों में झलकता तो है ही, साथ में उस समय की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों का पारदर्शी चित्रण भी अपने आप मस्तिष्क में दर्ज हो जाता है। देश-विदेश के शीर्ष पर आसीन अनेक गणमान्यों के साथ छोटे कद के इस महानायक को अपनी सहज और नैसर्गिक मुस्कान के साथ इन चित्रों में देखना, एक अनोखे अनुभव को आपके साथ जोड़ता है।
स्मारक में गरिमा है, उर्जात्मक कंपन भी है, मैं अंदर जाता हूं, मेरे पांव ठिठक जाते हैं। सामने दीवार पर भारत का मानचित्र लगा है, एक मुख्य कुर्सी है, एक मेज और मेज के दूसरी ओर दो और कुर्सियां हैं। पास में एक रेडयो है, दो टेलीफोन, एक टेबल लैंप है, एक भारत का झंडा है और अन्य कुछ ऑफिस में लगने वाली वस्तुएं हैं। इतने सादगी और कम संसाधनों वाला कार्यालय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री का है, इसे मन में अंकित करना कठिन हो जाता है। यह वही कार्यालय है जहां से शास्त्री जी ने जून 1964 से जनवरी 1966 तक भारत का नेतृत्व किया।
गौरतलब है कि वह दौर भारत के लिए चुनौती भरा रहा था। एक तरफ भीषण अकाल और दूसरी तरफ अस्थिर पड़ोसी देश पाकिस्तान में सिर-फिरे सैन्य शासकों की भारत को कमजोर करने की साजिश। उन विपरीत और गंभीर परिस्थितियों में इस कार्यालय में बैठकर, शास्त्री जी द्वारा भारत की एकता और संप्रभुता को कुशलता से बचाने के प्रयत्न को स्वत्रंत भारत का इतिहास एक अविस्मरणीय योगदान मानता है। उनके प्रसिद्ध नारे का “जय जवान” यहां है।
इस कार्यालय को बस देखकर ही एक अलग ऊर्जा का अनुभव हुआ। साथ ही साथ मुझे ऐसा लगा मानों जिस उद्देश्य को लेकर स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया और लोकतंत्र की बुनियाद रखी गई और देश के एक सामान्य नागरिक को देश का सर्वोच्च नेतृत्व देने का अवसर मिला उसे इस महानायक ने किस तरह सादगी, मितव्ययता और कौशल से निष्पादित किया, इसका श्रेष्ठ उदाहरण शास्त्रीजी हैं। दिल्ली सदा सत्ताधीशों का स्थान रहा है और इस लोकतांत्रिक गणतंत्र का केंद्र रहे इस प्रधानमत्री निवास की तुलना ब्रिटिश सत्ता का केंद्र रहे वाइसराय हाउस, उसके पहले मुग़ल सल्तनत का केंद्र रहे लालकिला से की जाए तभी लोकतंत्र और राजतंत्र का अंतर और आसानी से समझा जा सकता है। भारत के शोषण से बने वे पूर्व के सत्ता केंद्र और शास्त्रीजी जैसे प्रंधानमंत्रियों ने बनाए सत्ता केंद्र ने ही भारत में लोकतंत्र को स्थापित किया। शास्त्रीजी का यह योगदान बहुमूल्य है।
बंगले के प्रांगण में वह फियट कार कड़ी है, भारत के शीर्ष पद पर आसीन प्रधानमंत्री द्वारा आम नागरिक की भांति बैंक से कर्ज लेकर अपने पैसे से खरीदी गाड़ी। यह गाड़ी सामाजिक और नैतिक मूल्यों की कहानी स्वतः कह जाती है। रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेकर रेलमंत्री के पद से त्यागपत्र देना और वैश्विक दबाव में न आते हुए अनाज के संकट से झुझते भारत को उपवास करने का आव्हान करते हुए देश को अपने पैरों पर खड़े करने का स्वाभमानी संकल्प शास्त्रीजी जैसे निडर व्यक्ति ही ले सकते हैं। उनके प्रसिद्द नारे का “जय किसान” यहाँ है
अब बंगले में दो और ऐसे स्थान हैं जो शास्त्रीजी के प्रति आदर को और भी द्विगुणित करते हैं, पहला उनका पूजा घर, संस्कार और अध्यात्म भारत में बसे हैं। आराधना और साधना और उसके संगीतमय अनुनाद इस कमरे में शास्त्रीजी को मिले मनोबल और शक्ति की कहानी अनायस हे कह देते हैं। फिर एक रसोई घर है, सत्ता के शीर्ष पर बैठकर भी अपने रहन-सहन को मितव्ययी और शासन की चकाचौंध से कोसों दूर रखने का एक श्रेठ उदहारण। इस मूल्यों पर आधारित अचंभित करने वाली सादगी मन में प्रश्न पैदा करती है, कहाँ ऐसा होता होगा , कुछ सोच विचार के बाद गांधीजी का साबरमती आश्रम याद आया, मन गदगद हो उठा, दोनों भारत के लाल, एक ही दिन पैदा हुए। धन्य है 2 अक्टूबर का यह दिन जिसने एक ही दिन भारत को महानायक और महात्मा दिए.. इनको कोटि-कोटि प्रणाम