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उत्तराखंड में बेरोजगार युवाओं को रोजगार एवं स्वरोजगार हेतु संगठित करने की कवायद और उसकी दिशा

By GD Pandey
g524 मार्च 2020 को देशव्यापी लाकडाउन की घोषणा के साथ ही भारत के करोड़ों मजदूरों खासकर प्रवासी मजदूरों और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों में हा हाकार मच गया। लाकडाउन के पहले चरण को तो अधिकांश कामगारों ने इस उम्मीद के साथ येन केन प्रकारेण झेला कि लाकडाउन खुलने पर उन्हें उनका काम पूर्ववत मिल जायेगा परन्तु 15 अप्रेल से लाकडाउन का दूसरा चरण शुरू हो जाने से उनकी उम्मीदें टूटने लगी और वे अपने- अपने गृह राज्य और गांव लौटने को विवश हो गये। गांव भेजने की योजना के अभाव तथा सरकार की ओर से यातायात के साधनों को समय पर मुहैया न कराये जाने के कारण हजारों लोगों को रास्तों में परिवार व बच्चों समेत बे मौत ही मौत के मुंह में जाना पडा। अफरातफरी और भगदड़ के वे दृश्य दिल दहला देने वाले थे।

उस समय का परिदृश्य सर्वविदित है। उसी दौरान उत्तराखंड के प्रवासी कामगार युवा भी देश के विभिन्न शहरों से अपने गांव पहुॅचने लगे। उत्तराखंड में यह संख्या घीरे-घीरे लाखों में पहुंच गयी। जो युवा उत्तराखंड से रोजगार की तलाश में अपने गांव छोड़कर शहरों में चले गये थे, उन्हें पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा था। क्योंकि उत्तराखंड में उन्हें कोई रोजगार उपलब्ध नहीं था, उन्हें वापस अपने गांव लौटने के लिए कोरोना महामारी ने बाध्य कर दिया। अनलाक के तीसरे और चैथे चरण में कुछ बेरोजागर युवक पुन:  शहरों का रुख कर रहे हैं। पिछले 6 महीने में चरणबद्ध तरीेके से लाकडाउन तथा अनलाक की प्रक्रिया चल रही है। गांवों में वापस लौटे युवा घोर बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं। सरकारों का कहना है कि युवा अपने लिए स्वयं ही रोजगार का इन्तजाम करें अर्थात स्वरोजगार स्थापित करें। रोजगार मुहैया कराने के नाम पर शासक वर्ग हाथ जोड़कर अपनी लाचारी प्रकट करते हुये अपना पल्ला झाड़ लेता है।

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तथाकथित स्वरोजगार की जो कुछ अपरिपक्त योजनाएं ऊपरी तौर पर बताई जाती हैं उनकी न तो कोई ठोस योजना बनाने का प्रयास किया जाता है और न ही उन योजनाओं को गांव में युवाओं के बीच चर्चा में रखा जाता है। ऐसी परिस्थितयों के चलते उत्तराखंड में सत्ताधारी और विपक्षी राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ता तथा कुछ गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) के कार्यकर्ता और कुछ स्वयंभू व्यक्तिवादी नेता पूरे उत्तराखंड में अलग अलग जगहों पर अपने अपने तरीके से बेरोजगार युवाओं को इकट्ठा करने तथा उन्हें अपना जैवी संगठन बनाने की कवायद में लग गये हैं। ऐसे अनेकों नेतागण नजदीकी कस्बों और नगरों से पन्द्रह दिन या एक महीने में एक बार गांवों में चले जाते हैं और बेरोजगार युवाओं में से अपने पंसदीदा युवाओं को मीटिंग के बुलाते हैं और उन्हें उन्हीं की समस्याओं में उलझाकर उन्हें अपने संगठन अथवा पार्टी यूनिट का सदस्य बनने को कहते हैं।

पार्टी इकाई का सदस्य बन जाने अथवा एनएनजीओ का सदस्य बन जाने के बाद उन युवाओं को रोजगार एवं स्वरोजगार की मांग एक जनसंगठन की मांग के रूप में आगे नहीं बढ़ रही है बल्कि राजनैतिक दल अपने अगले चुनावों के लिए जमीन तैयार करने में लगे हैं। पूरे गढ़वाल और कुमाऊॅ रीजन में इस तरह की गतिविधियों से संबंधित मैसेज सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर थोक में आ रहे हैं। इस मामले में एनजीओ भी अपना फंड बढ़वाने के लिए नित नये तरीकों से युवाओं की सभाएं बुलाकर अपनी सक्रियता तथा जनता के बीच काम का प्रमाण दे रहे हैं। युवाओं की बेरोजगारी दूर करने का केाई ठोस एजेंडा अभी तक किसी के पास नहीं है। ऊपर से आये नेताओं अथवा संगठनकर्ताओं से कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है, हां, यदि कोई संगठन प्रगातिशील और जनवादी विचारधारा से जुड़ा हो और उनकी छवि जनसमस्याओं के लिए निरन्तर संघर्ष करने की रही हो तो वह ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण के साथ ठोस समाधान के लिए कार्य करते हैं। ऐसा ही इतिहास उत्तराखंड का भी रहा है।

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इस कोरोनाकाल में एक अच्छी बात जो कई गावों में देखने व सुनने में आ रही है, वह यह कि शहरों से वापस गांवों में गये हुए युवा कामगार स्वयं अपने विवेक व अपनी समझ, क्षमता तथा कौशल का विकास करते हुए गांवों में सड़क निर्माण, सड़क की मरम्मत, पानी की उचित व्यवस्था तथा आरगैनिक खेती के लिए स्वयं जद्दोजहद करके क्रियाशील हैं लेकिन उन्हें भी आगे सही दिशा और सही मार्गदर्शक की जरूरत पड़ेगी। शहरों से गांव लौट बेरोजगार युवाओं के लिए इस समय रोजगार की समस्या ही सबसे बड़ी समस्या है।

फौरी तौर पर इसका कोई ठोस समाधान करने हेतु रेडीमेड फर्मुला भी नहीं है। शोषण पर आधारित इस समाज व्यवस्था में कहीं पर भी मजदूर वर्ग के बेरोजगार तबकों, मध्यमवर्ग के बेरोजगारों तथा लाखों की तादाद में स्कूल कालेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद रोजगार की आंकाक्षा रखने वाले युवाओं के रोजगार की समुचित व्यवस्था नहीं है । यदि कहीें पर कुछ रोजगार है भी तो वह सिर्फ चंद लोगों के लिए है। प्राइवेट फैक्ट्री, कंपनी, कारपोरेट सेक्टर में यदि कुछ रोजगार हैं भी तो वह सिर्फ मालिक वर्ग के हितों की पूर्ति के लिए ही हैं।

ऐसा स्पष्ट स्थिति में सबसे पहला काम तो यह होना चाहिए कि उत्तराखंड के सभी बेरोजगार युवाओं को तब तक गुजारे लायक बेरोजगारी भत्ता सरकार की तरफ से दिया जाना चाहिए जबतक कि संबंधित बेरोजगार युवक को रोजगार अथवा स्वरोजगार न मिल जाये । बेरोजगारी भत्ता सरकार से लेने के लिए बेरोजगार युवाओं को अपने जनसंगठन में संगठित होकर व्यापक संघर्ष द्वारा सरकार पर दबाव डालकर उसे मजबूर करना पड़ेगा तभी ऐसा भत्ता मिलेगा। इसके साथ -साथ उत्तराखंड के जागरूक प्रबुद्ध तथा जनवादी कहे जाने वाले लोगों को इन बेरोजगार युवा संगठनों के साथ मिलकर गांव कमेटियों के माध्यम से गांव स्तर से शुरू करके एक ठोस सर्वेक्षण कार्यक्रम चलाना चाहिए जिससे आकड़े इकट्ठे करके पूरे उत्तराखंड में क्या-क्या उद्योग धंधे लग सकते हैं। कृषि का विकास कैसे हो सकता है ? फल उत्पादन को उद्योग के रूप में कैसे विकसित किया जा सकता है ? पशुपालन में बकरी पालन की क्या और कितनी संभावनाएं हैं ? वनों तथा जंगलों का उपयोग गांव की जनता किस तरह अपनी आजीविका के लिए कर सकती है ? मतस्य पालन के लिए घरों के पास तालाब बनाकर मछली पालने की भौगोलिक परिस्थित कैसी है ? मशरूम की खेती के लिए ठोस योजना क्या हो सकती है ?

मधुमक्खी पालन उद्योग कैसे विकसित हो ? प्राकृतिक जड़ी बूटियां उत्तराखंड से बाहर कच्चे माल के रूप में न जा पाये और उनका उत्तराखंड में ही उद्योग लगाया जाए इसकी कितने संभावनाएं ? आरगनिक खेती, सब्जियां, सोयाबीन, मूंगफली, दालें तथा मसाले वैज्ञानिक तरीके से उगाने के लिए किन- किन तरीकों तथा खाद बीज की आवश्यकता है? इत्यादि का डेटा बेस सर्वेक्षण तैयार हो जाने पर जो प्रमुख मुद्दे उभरकर आयेंगे उनके लिए जनसंघर्ष चलाकर रोजगार की समस्या के समाधान हेतु प्रगतिशील और सही दिशा में जनता के स्तर से जनकार्यों से जुड़ना और जनसघर्ष से ही नया नेतृत्व पैदा करना सक्रिय व जागरूक युवाओं को नेतृवकारी भूमिका में रखना, पुराने जन संघर्षों के अनुभव से उन्हें प्रेरित व लाभान्वित करना ही आज उत्तराखंड की एक प्रमुख जरूरत लगती है। इसके अलावा भी बहुत सारी नई चीजें, नये अनुभव व्याहारिक जन कार्य से आते हैं जो जनता के साथ उनके रोेजमर्रा के संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर चलने पर ही प्राप्त हो सकते हैं। कोरोना काल के बाद यह कार्य और अधिक सुचारू रूप से चल सकता है ऐसा लेखक को लगता है। युवाओं और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों में इस विषय पर व्यापक विचार विमर्श का होना भी आवश्यक लगता है।

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