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आन्दोलन की कहानी: संघर्षों के लिए समर्पित थी ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’

By CS Karki 

सत्तर का दशक देश में परिवर्तन के लिए वेवाबी का दशक था। देश में राजनैतिक एवं सामाजिक परिवर्तन के लिए हो रहे प्रयासों में उत्तराखंड की साझेदारी कम नहीं थी। गरीब, आदिवासी, भूमिहीन किसानों के लिए संघर्ष कर रहे संगठनों के साथ ही नई राजनैतिक पहल पर बहस करने वाला एक वर्ग भी पनप रहा था। स्पष्टत: सामाजिक परिवर्तनकारी राजनैतिक समझ यहां के छात्रों एवं युवा वर्ग में भी विकसित हो रही थी।

विभिन्ïन सामाजिक कार्यकर्ता, राजनैतिक पार्टियां, छात्र संगठन समसामयिक समस्याओं के निवारण के लिए संगठित हो रहे थे। अपनी क्षेत्रीय विसमताओं, भौगोलिक परिस्थिति, पर्यावरण एवं वन सम्पदा के शोषण इत्यादि से प्रभावित उत्तराखंड भी नव चेतना के लिए अग्रसर हो रहा था। इसी के परिणाम स्परूप वनों के संरक्षण एवं अंधा धुंध वन कटान के खिलाफ विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की शुरूआत श्री सुन्दर लाल बहुगुणा एवं चंडी प्रसाद भट्ट जी के नेतृत्व में शुरू हुआ। तभी विश्वविद्यालय की मांग को लेकर छात्र आंदोलन शुरू हुए। नवम्बर 1973 में गढ़वाल विश्वविद्यालय की तथा दिसम्बर 1973 में कुमाऊं विश्वविद्यालय की स्थापना प्रखर आंदोलनों के परिणाम थे। आंदोलनकारी छात्रों की मांग से प्रभावित तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा ने पहाड़ में दो समृद्ध विश्वविद्यालय स्थापित कर, जन आंदोलनों की महत्ता को भी स्थापित किया।

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उत्तराखंड में वनों के कटान के विरुद्ध जन चेतना एवं पर्यावरण के लिए काम करने वाले विभिन्ïन संगठन, समाज सेवी एवं चिन्तक अपने अपने ढंग से सक्रिय थे। विश्वविद्यालय की स्थापना के पश्चात छात्रों का संगठन विभिन्ïन सामाजिक सरोकारों में अपनी चेतनशील सोच के साथ दखल देने लगा था। अपने भूभाग एवं जन जीवन की चिंता करने वाला प्रतिभा सम्पन्ïन छात्रों का समूह पहाड़ को जानने असकोट से आराकोट पैदल चल पड़ा। यह पद यात्रा 1974 में सम्पन्ïन हुई। पदयात्री शेखर पाठक, शमशेर सिंह बिष्ट, कुंवर प्रसून एवं प्रताप शिखर, उत्तराखंड में सितारों से कम नहीं, जिन्होंने दूरस्थ गांवों की परिस्थितियों एवं विकास की संभावनाओं का अध्ययन किया। यह यात्रा अपने आप में एक शोध कार्यशाला साबित हुई। तत्पश्चात निरंतर हर दशक में यह यात्रा सम्पन्न होती रही है।

वर्ष 1974 से पूर्व छात्रों का कोई ऐसा संगठन नहीं था जो सामाजिक चेतना एवं संघर्षों के लिए समर्पित हो, हालांकि विभिन्ïन आंदोलन के अग्रणी छात्र ही रहते थे। जनसमस्याओं का निवारण एवं शासकीय वेदनाओं से निपटने के लिए तत्कालीक रूप से नागरिक मंच या छात्र समूह को चेतन शील छात्र आंदोलित करते और संघर्ष का विगुल बजाते। इनमें अल्मोड़ा पेयजल समस्या, भागीरथी बाढ़ आंदोलन, जागेश्वर मूर्ति चोरी काण्ड इत्यादि हैं।

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गॉवों की समस्याओं और अल्मोड़ा में अपनी पृष्ठभूमि के कारण उत्पन्ïन समस्याओं से लड़ रहे छात्रों ने ग्रामीण क्षेत्रों में चेतना जगाने के लिए एक संगठन की स्थापना की। नाम दिया ‘ग्रामोत्थान छात्र संगठन’। विश्वविद्यालय के छात्र जो ग्रामीण क्षेत्रों से आते थे इससे जुड़े। इसमें मुख्य रूप से भूपाल सिंह धपोला, पीसी तिवारी, प्रदीप टम्टा, चंद्र सिंह मेहरा, भवान सिंह कार्की, नवीन भट्ट, मोहन बिष्ट, सोबन सिंह नगरकोटी, भूपाल सिंह बोरा, रमेश धपोला, जगत रौतेला आदि थे। इसके संरक्षक स्व. शमशेर सिंह बिष्ट जी एवं स्व. पीसी पाण्डे जी थे। यह संगठन कर्मठ कार्यकर्ताओं की टीम थी जो अपने गॉव, क्षेत्र और पहाड़ के लिए प्रतिबद्ध थी। अल्मोड़ा ढूंगाधारा से शुरू हुआ संगठन निरंतर पहाड़ की एवं यहां के वाशिंदों की चिंता करने, समाधान ढूंढने एवं छात्रों की समस्या सुलझाने में सक्रिय रहा।

‘ग्रामोत्थान छात्र संगठन’ ने छात्र राजनीति की सोच बदलने की कोशिश की। तब तक छात्र राजनीति चकाचौंध एवं मात्र प्रदर्शन केन्द्रित होती थी। धन एवं बल के प्रभाव से छात्रों को प्रभावित किया जाता था। डा. शमशेर सिंह बिष्ट के संरक्षण में विश्वविद्यालय में क्रिया-कलापों को दिशा देती हुई एक नई राजनीति पनपी जिसने ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों को आत्मविश्वास से भर दिया। लगातार कई वर्षों तक ग्रामोत्थान छात्र संगठन से जुड़े हुए छात्र ही कालेज राजनीति में छाए रहे। जिनमें छात्र संघ अध्यक्ष रहे पीसी तिवारी, जगत रौतेला, प्रदीप टम्टा एवं गोविन्द सिंह भण्डारी प्रमुख हैं।

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पहाड़ के अन्य युवकों को संगठन से जोडऩे एवं संगठन को और व्यापक रूप देने के लिए इसका नाम ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ रखा गया। संगठन में सामाजिक कार्यकर्ता, सांस्कृतिक कर्मी, श्रमिक, बेरोजगार जुड़ते गए। इस संगठन के माध्यम से पहाड़ में जन चेतना के लिए स्व. गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ ने गॉव गाँव तक गा-गाकर पहुंचाया। बिना किसी उद्घोषणा एक बैनर के पहाड़ की भाषा एवं संस्कृति के प्रचार प्रसार जन समस्याओं से जोड़ते हुए करते रहे। पहाड़ के गायकों, कलाकारों को इस मुहिम में जोड़ते रहे। ग्रामीण जन सचेत संगठन कर्ताओं को पहाड़ के कष्टों, कमियों और जरूरतों का आभास कराते रहे और तब जरूरत महसूस होने लगी एक ऐसे संगठन की जो सत्ताधारी दलों एवं उनके शासन को संघर्ष एवं आंदोलनों से पहाड़ के दर्द को समूल मिटाने के लिए मजबूर करने में सक्षम हो। ऐसा नाम जिसमें जुझारूपन का संदेश हो, पहाड़ का प्रतीक और निरंतर उद्देश्यों को समर्पित गति ‘उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी’ संगठन का नाम रखा गया।

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विख्यात ‘वन नीलामी’ विरोधी आंदोलन से लेकर ‘नशा नहीं रोजगार दो’ जैसे कई आंदोलनों का संचालन करती उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी पर्वतीय राज्य आंदोलन की जमीन तैयार करती रही। इसी उद्देश्य से स्वायत्तशासी उत्तराखण्ड राज्य के लिए जन जागरण अपने विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से करने लगी। सर्वाधिक जन समर्थन प्राप्त यह संगठन हर आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाता रहा। राज्य आंदोलन में इस संगठन ने कई जुझारू नेता उत्तराखंड को दिए।

छात्रों के एक छोटे समूह से शुरू हुआ उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी कुशल नेतृत्व एवं स्पष्ट दृष्टि के परिणाम स्वरूप पहाड़ में एक सशक्त आवाज के रूप में स्थापित हुआ।

वर्तमान में युवा वर्ग को अपने गॉव, गरीबी, रोजगार एवं पर्यावरण से जोडऩे वाली समझ विकसित कराने वाली ताकत की आवश्यकता है। युवा वर्ग परिवर्तन के लिए सार्थक सामर्थ रखता है और अपनी क्षमताओं से अन्य को भी प्रभावित करता है। अत: ग्रामोत्थान छात्र संगठन की तरह पनपते हुए संघर्षवाहिनी बनने की प्रक्रिया निरंतर चलते रहने की आवश्यकता है।

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