By Prem Punetha
आज फूल दे ई है चैत्र के प्रथम दिन यानि संक्रान्ति को उत्तराखंड में फूल देई के रुप में मनाया जाता है। जिस तरह से बसंत शीत काल की विदाई का सूचक है और बसंत पंचमी का पर्व इसी लिए मनाया जाता है। उत्तराखंड में फूल देई शास्त्रीय बसंत का ही लोकरूप है। शास्त्र और लोक के बीच मे फ़र्क होता है। शास्त्र किसी भी तथ्य को बहुत ही अलंकारिक तरीक़े से कहता है जबकि लोक उसी तथ्य को कुछ खुरदुरे तरीके से कहता है। इस खुरदुरे पन का भी अपना ही आंनद और सुख है। बसंत और फूल देई के बीच एक ही भावना होने पर भी अलंकार और खुरदुरे पन का अंतर है।
हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड का शीत काल बहुत ही कष्टकर होता है। क्लाइमेट change की चर्चाओं के दौर मे जबकि बर्फ और वर्षा कम हो गई है और टेक्नीक ने पहाड़ पर जीवन की समस्या को कम कर दिया है। फिर भी पहाड़ों में जाड़ा कम कष्टकर नहीं है। यही कारण है कि सूर्य के मकर रेखा से भूमध्य रेखा की और संक्रमण को ही पूरा भारत और विशेष रूप से पर्वतीय क्षेत्र खुश होते हैं।
कुमाऊं में घुघुतिया और uttarayani मनाई जाती है। घुघुतिया प्रतीक है के सूर्य के उत्तरायण होने के साथ ही प्रवास में मैदान को गए मानव और पशु पक्षी अब वापस पहाड़ को लौटेंगे और मानव के इसी प्रसननता की अगली कड़ी फूल दे ई है। पहाड़ों पर बसन्त कुछ देरी से आता है। तब यहां पर बर्फ को पिघलने और नई कोपले आने में मैदान से ज्यादा समय लगता है। इसीलिए पहाड़ो में फूल कुछ समय बाद खिलते हैं।
फूल देई का पर्व मानव का प्रकृति के साथ सहाचर्य का भी प्रतीक है। जब प्रकृति खुश तो मनुष्य भी खुश। फूल दे ई पर्यावरण के प्रति हमारे परंपरागत ज्ञान और समझ को बताया है । क्लाइमेट चेंज के इस दौर में इस लोक पर्व का महत्व कही ज्यादा है।