प्रताप सिंह नेगी
हमारे पहाड़ के गांवों मेें यूं तो हर महीने कोई न कोई त्यौहार आता है जिसे लोग बड़ी धूमधाम के साथ अपनी रीति रिवाज के साथ मनाते आ रहे हैं। इन्हीं त्यौहारों में से एक त्यौहार है घी संक्राति। सावन मास खत्म होने के बाद भादो महीने की संंक्रांति पर इस त्यौहार को मनाया जाता है। जैसा कि नाम से ही पता चलता है इस त्यौहार में सभी लोग घी खाते हैं। गांव में कहावत यह भी रही है कि जो इस दिन घी नहीं खाता है वह गनेल बन जाता है। इसलिए आज के दिन परिवार के सभी लोग कटोरे भर भरकर ताजा घी खाते हैं। घी संक्रांति के साथ ही शुरू होता है ओलगिया। भादो महीने में ओलगिया का विशेष महत्व है। इस महीने हर बेटी अपने माँँ-बाप, बड़े भाई-भाभी को ओलगिया भेंट करने जाती है। यही नहीं छोटे भाई भी बड़े भाई को ओलगिया भेंट करते हैं। जब कोइ बहन, बेटी या छोटा भाई ओलगिया भेंट करने जाता है तो तरह तरह के पकवान, फल, दही की ठेकी और उसके साथ पिनालू के गाबे बांधकर ले जाता है।
पुरानी कहावत यह भी रही है कि –
जाक गोठ धिनाई रोजै त्यार…..
जाक भितैर नान तीन रौजै कोतीक……
यानी जिसके घर में दूध, दही देने वाली गाय, भैंसें हैं उनके घर में रोज त्यौहार और जिनके घरमें छोटे छोटे बच्चे होते हैं उनके घर पर रोज ही मेले का जैसा अनुभव होता है।
लेकिन समय के साथ साथ अब त्यौहार मनाने के तरीकों में भी बदलाव आने लगा है। गांव घर में अब भी लोग धूम धाम के साथ त्योहार मनाते हैं जबकि गांव से बाहर जो लोग हैं वे भी अपने त्यौहारों को तो मनाते हैं लेकिन अपनी संस्कृति का वैसा आनंद नहीं उठा पाते। गांवों में आज भी त्यौहार पर बनने वाले पकवानों को एक दूसरे के साथ मिल बांटकर खाने की परम्परा है।
घी त्यार भी बड़ा त्यौहार माना जाता है जिसके पास धिनाली नहीं होती थी वे लोग अपने लिए पहले से ही घी की व्यवस्था कर लिया करते थे। ताकि वे भी इस त्यौहार के दिन घी खा सकें।
वैसे तो घी त्यार के एक दिन पहले जिसके पास धिनाली नही होती थी अगल बगल वाले सभी एक एक पाव या कटोरी में उन्हें घी दे दिया करते थे। और जिसकी धिनाली होती थी वे लोग भी एक महीने पहले से घी जमा करने लगते थे ताकि पास-पडोस और विरादरा को दही, घी दे सकें। घी संक्राति के दिन लोग कम से कम एक एक कटोरा घी खा लेते थे। बचे हुए घी से हाथ पैरों में मालिस की जाती थी। घी संक्राति को बेडुवा रोटी (दाल भरी हुई) बनाई जाती थी जिसे लोग घी की कटोरी में डुबोकर बड़े ही चाव से खाया करते थे। घी त्यौहार के दिन गाय, भैस, बैलो के सिर में भी घी लगाया जाता था।
घी संक्रांति की पहली रात को छिलको में घी लगाकर दरवाजे पर जैसे दिपावली के दिन कैंडिल जलाए जाते हैं ठीक उसी तरह छिलकों में घी लगाकर जलाने का रिवाज भी था। ठीक उसी तरह से दियार यानि छिलके के लिए भी एक दिन कुछ लोग टोली टीम में अपने अपना टाइम निकाल इतवार या बुधवार या शुक्र वार के दिन ही जंगल से लाया जाता था।