गोपाल पांडे
दिल्ली, देश की राजधानी, इन दिनों फिर से दम घोंटू हवा में डूबी हुई है। वायु गुणवत्ता सूचकांक (Air Quality Index – AQI) लगातार खतरनाक स्तर को छू रहा है। हाल ही में यह लगभग 400 के पार पहुंच गया है, जो “गंभीर” श्रेणी में आता है। इसका अर्थ है कि दिल्ली की हवा अब न केवल अस्वस्थ बल्कि जीवन के लिए खतरनाक बन चुकी है।
प्रदूषण की भयावह स्थिति
सुबह और शाम के समय शहर के ऊपर धुएँ और धुंध (स्मॉग) की मोटी परत छाई रहती है। यह धुंध केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि वाहनों के धुएँ, निर्माण स्थलों की धूल, उद्योगों के उत्सर्जन और पराली जलाने से उत्पन्न धुएँ का मिश्रण है। नतीजतन, लोगों के लिए सांस लेना कठिन हो गया है। बच्चों, बुजुर्गों और अस्थमा से पीड़ित लोगों की स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है। अस्पतालों में श्वसन संबंधी रोगों के मरीजों की संख्या बढ़ने लगी है।

हर साल दोहराई जाने वाली त्रासदी
यह कोई नई समस्या नहीं है। हर वर्ष अक्टूबर-नवंबर के महीनों में यही स्थिति बनती है। प्रदूषण नियंत्रण के उपायों पर चर्चा होती है, अदालतें निर्देश देती हैं, परंतु ठोस समाधान अब तक नहीं निकल पाया है। सरकारें बदलती हैं, योजनाएँ बनती हैं, लेकिन हालत वैसी ही बनी रहती है।
सरकारों की भूमिका और जिम्मेदारी
यह समय एक-दूसरे पर आरोप लगाने का नहीं, बल्कि संयुक्त प्रयासों का है। केंद्र सरकार और राज्य सरकार, दोनों को मिलकर इस संकट से निपटने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे। केवल ‘ऑड-ईवन’ या ‘कंस्ट्रक्शन बैन’ जैसी अस्थायी योजनाएँ समस्या का हल नहीं हैं।

सरकारों को चाहिए कि —
पराली जलाने के विकल्पों के लिए किसानों को प्रोत्साहन और सहायता मिले।
सार्वजनिक परिवहन को सशक्त और सुविधाजनक बनाया जाए।
औद्योगिक उत्सर्जन और धूल पर सख्ती से नियंत्रण किया जाए।
हरी पट्टियों का विस्तार और वृक्षारोपण बड़े पैमाने पर हो।
प्रदूषण नियंत्रण कानूनों का कड़ा पालन सुनिश्चित किया जाए।
जनता की भूमिका
जनता को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी—गाड़ियों का सीमित उपयोग, कचरा न जलाना, पेड़ लगाना और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील व्यवहार अपनाना ही समाधान का मार्ग है।
शासन की प्राथमिकताएँ और अपेक्षाएँ
वर्तमान परिदृश्य में यह खेदजनक है कि केंद्र सरकार का ध्यान अधिकतर समय चुनाव लड़ने और चुनाव जीतने की रणनीतियों में केंद्रित रहता है, जबकि जनता के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएँ लगातार विकराल रूप ले रही हैं। सरकार को चाहिए कि वह राजनीतिक लाभ-हानि से ऊपर उठकर जनस्वास्थ्य को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता बनाए। प्रदूषण जैसी गंभीर समस्या पर ठोस राष्ट्रीय नीति बनाना और उसे लागू कराना समय की मांग है। केंद्र सरकार को न केवल राज्य सरकारों को स्पष्ट दिशा-निर्देश और नीतिगत मार्गदर्शन देना चाहिए, बल्कि आवश्यक वित्तीय सहायता और तकनीकी सहयोग भी उपलब्ध कराना चाहिए ताकि राज्य स्तर पर प्रदूषण नियंत्रण के प्रभावी उपाय किए जा सकें। केवल घोषणाओं या अभियानों से नहीं, बल्कि व्यवहारिक और निरंतर प्रयासों से ही इस संकट से मुक्ति संभव है।
निष्कर्ष
दिल्ली में प्रदूषण अब केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं, बल्कि जनस्वास्थ्य का संकट बन चुका है। स्वच्छ हवा में सांस लेना हर नागरिक का अधिकार है, और सरकारों का कर्तव्य है कि इस अधिकार की रक्षा करें। यदि अब भी ठोस कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले वर्षों में स्थिति और भयावह हो सकती है। समय की मांग है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर इस “सांसों के संकट” से दिल्ली को स्थायी राहत दिलाएँ।







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