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कुमाऊं में क्यो मनाया जाता है सातो-आठू का त्यौहार, क्या कहती हैं लोक कथाएं… जानने के लिए पढि़ए ये खबर

प्रताप सिंह नेगी

यों तो उत्तराखण्ड में हर महीने में कोई न कोई त्यौहार मनाने की परम्परा रही है। इन्हीं त्यौहारों में से एक सातों-आठूं का त्यौहार भी है, जो कुमाऊं मंडल के अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और बागेश्वर जिलों में हर साल बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। लोक कथाओं पर आधारित इस त्यौहार को भादो महीने में मनाया जाता है। पंचमी के दिन महिलाएं व्रत रखकर पॉच या सात अनाज भिगोते हैं जिनमें मटर, चना, उरद, गेहूं, मक्ïका प्रमुख हैं। पंचमी के दिन इन सात अनाज को साफ करके धोकर तांबे या पीतल के बर्तन में रखने की परम्परा रही है। फिर इन्हें घर के मंदिर के पास साफ जगह पर रख दिया जाता है। इस त्यौहार को गांव की महिलाएं और अन्य लोग सामूहि रूप से मनाते हैं। सप्तमी के दिन महिलाएं व्रत धारण करती हैं और हरे-भरे खेत में जाकर मक्ïका, तिल और पाती की टहनियों से गौरा और महेश की प्रतिमाएं बनाती हैं। इन्हें सुन्दर वस्त्र पहनाए जाते हैं और श्रृंगार भी किया जाता है। सप्तमी के शाम को गौरा-महेश की पूजा-अर्चना की जाती है और पॉच अनाजों जिन्हें बिरुड़ कहते हैं उन्हें गौरा-महेश को चढ़ाया जाता है। आठूं के दिन भिगोए हुए बिरुड को पकाया जाताा है और इसे प्रसाद के तौर पर सबको बांटा जाता है। सातों और आठूं के दिन महिलाएं व्रत धारण करती हैं, जिसे डोर-दुबड़ का व्रत भी कहा जाता है। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा लोकगीत, झोड़े, चांचरी, भजन कीर्तन भी किए जाते हैं और गौरा-महेश की प्रतिमाओं जिन्हें गंवारे कहते हैं इन्हें महिलाओं द्वारा बारी बारी से नचाया जाता है।

गवरा या सातों-आठू मनाने के पीछे एक कहावत भी प्रचलित है कि भादो के महीने में गवरा देवी अपने ससुराल से रूठकर मायके आ गई, तब उसके मायके वाले बोलते हैं कि गवरा तू भादो के महीने क्यों आ गई, अभी तो अनाज भी नहीं हुआ है। अश्विन के महीने में आती, उस समय तब खेतों में अनाज भी तैयार हो जाता है। इस वार्तालाप का एक गीत भी गाया जाता है, जिसके बोल इस प्रकार हैं- किलै ऐछे गवरा भूखा भादौ, हगिल महण ऊनी सुख दिन असौजा अष्टमी के दिन गवरा को लेने महेश आते हैं इसलिए अष्टमी के दिन महेश की पूजा अर्चना भी की जाती है। महेश के आने पर गवरा देवी को ससुराल के विदा किया जाता है। इसी दिन गौरा-महेश की बनाई प्रतिमाओं को भी विसर्जित किया जाता है। विसर्जन से पहले महिलाएं गौरा-महेश के गाने गाकर उन्हें नचाते हैं और इस अवसर पर सामूहिक रूप से झोड़े चांचरी भी गाए जाते हैं।

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एक और पौराणिक लोक कथा यह भी प्रचलित है कि प्राचीन काल में एक ब्राह्मण थे जिनका नाम था बीण भाट। ब्राह्मण बीणा भाट के सात पुत्र और सात बहुएं थी लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान न होने के कारण बहुएं काफी दुखी थीं। ब्राह्मण बीण भाट एक बार भाद्रपद सप्तमी के दिन अपने जजमानों के यहां जा रहा था कि रास्ते में पढऩे वाली नदी में देखता है जिसमें दाल के छिलके तैर कर पानी के साथ बह रहे होते हैं। तब उसने नदी के ऊपर की तरफ देखा तो एक महिला नदी किनारे कुछ धोती हुई नजर आई। तब ब्रामण बीणा भाट उस महिला के पास गए। वह महिला कोई साधारण महिला नहीं थी बल्कि महिला के रूप में स्वयं पार्वती जी थी। बीण भाट ने उस महिला से पूछा बहन आप यह क्या धो रही हो। महिला ने जवाब दिया मैं कल अष्टमी की पूजा करनी है तो उसके लिए बिरुड धो रही हूं। तब महिला ने बीण भाट को इस व्रत का महत्व भी बताया। पार्वती जी द्वारा बताए गए विधि विधान को ब्राह्मण बीण भाट ने घर जाकर अपनी बहुओं को बताया। छह बहुओं ने विधि विधान के अनुसार व्रत धारण करके विरुड भिगोए और गौरा महेश की पूजा की तैयारी की। लेकिन एक बहु ने बिरुड़ भिगोते समय उसका एक दाना अपने मुंह में डाल लिया, जिससे उसका व्रत भंग हो गया। ऐसे में सभी का व्रत भंग हो गया। ब्राह्मण बीण भाट की सातवीं बहु जो बहुत सीधी थी गाय चराने ग्वाला गई हुई थी। तभी ब्राह्मण बीण भाट ने उस बहु को बुलाकर विधि विधान से बिरुड भिगोकर गौरा महेश की पूजा करने को कहा। सातवीं बहु ने विधि विधान से बिरुड़ भिगोए, व्रत धारण करके सच्चे मन से पूजा अर्चना की। तभी इस बहु को पुत्र रत्ïन की प्राप्ति हो गई। इससे ब्राह्मण बीण भाट बहुत खुश हुआ। सच्ची साधना से की गई पूजा अर्चना का यह त्यौहार तभी से प्रचलित हो गया जो आज भी कुमाऊं के कई गांवों में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है।

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