By Suresh Agrawal, Kesinga, Odisha
केसिंगा। पुराने ज़माने में कुष्ठरोग को एक अभिशाप माना जाता था, परन्तु आज इक्कीसवीं सदी के दौर में भी इस सोच में ज़्यादा अन्तर नहीं आया है एवं तमाम दावों के बावज़ूद ऐसे रोगियों के प्रति सामाजिक रवैया सही न होने के कारण उन्हें आज भी अलग-थलग अछूत की भांति जीवन बिताना पड़ता है।
कुष्ठ अब असाध्य रोग नहीं रहा एवं इसका कारगर इलाज़ भी सम्भव है, परन्तु कुष्ठ रोगियों के प्रति नज़रिया वही बना हुआ है। इसी सोच को प्रतिबिम्बित करती एक घटना आदिवासी बहुल कालाहाण्डी ज़िला थुआमूल-रामपुर प्रखण्ड के ग्राम तलझापी में देखने को मिली है, जहाँ ग्राम ही के 45 वर्षीय कदमा माझी का उन्हीं के परिजन तथा ग्रामवासियों द्वारा बहिष्कार कर दिये जाने के कारण उन्हें जंगल में घास-फूस की झोपड़ी बना एकाकी जीवन बसर करना पड़ रहा है।
ज्ञातव्य है कि लम्बे समय से कुष्ठ रोग से संक्रमित कदमा अत्यंत दयनीय स्थिति में जीवन बिता रहे हैं एवं उनकी हालत पर किसी की नज़र नहीं पड़ती। रोग के कारण ही वह अभी तक अविवाहित हैं। आलम यह है कि पीने के पानी अथवा स्नानादि के लिये भी उन्हें गांव में घुसने की अनुमति नहीं है। कदमा के अनुसार व्याधि से अधिक उनके अपने परिजनों एवं ग्रामवासियों का यह नकारात्मक रवैया उनके मन को चोट पहुंचाता है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार सरकारी सहायता के नाम पर कदमा को मासिक पांच किलोग्राम चावल एवं पांच सौ रुपये का दिव्यांग भत्ता मिलता है। जानकार लोगों के अनुसार कदमा को पांच किलोग्राम चावल अथवा दिव्यांग भत्ते की बजाय समुचित उपचार की आवश्यकता है, ताकि वह ठीक होकर सामान्य जीवन जीने के साथ-साथ मुख्यधारा में शामिल हो सकें।


Leave a Comment