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पिथौरागढ़। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान 1994 में हुए ‘रामपुर तिराहा कांड’ की 26वीं बरसी पर पिथौरागढ़ के टकाना रामलीला मैदान में एकत्रित हुए युवाओं व नागरिकों ने एक सभा का आयोजन कर शहीद आंदोलनकारियों की शहादत को याद किया। उपस्थित छात्र-छात्राओं ने पुलिसिया बर्बरता की सबसे क्रूर घटनाओं में से एक इस घटना और इसके बाद पीड़ितों को न्याय ना मिलने का स्मरण करते हुए इससे उचित सबक़ लेने की बात कही।
पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष महेंद्र रावत ने आयोजन की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि 1994 में मुज़फ़्फ़रनगर के रामपुर तिराहे में हुए इस जघन्यतम कांड के बाद से उत्तराखंड में 2 अक्टूबर को काले दिवस के रूप में मनाया जाता है। सितंबर 1994 में खटीमा और मसूरी में हुए गोलीकांड के पश्चात, दो अक्टूबर 1994 को उत्तराखंड के हजारों आंदोलनकारी इस दिन पृथक राज्य की शांतिपूर्ण मांग के लिए दिल्ली जा रहे थे लेकिन एक अक्टूबर की रात को ही इन आंदोलनकारियों की सैकड़ों गाड़ियों को मुज़फ्फरनगर के रामपुर तिराहे के पास रोक लिया गया। यहां आंदोलनकारियों को पुलिस के सबसे बर्बर रवैये का शिकार होना पड़ा. पुलिस ने कई आंदोलनकारी महिलाओं के साथ बलात्कार किया और कई लोगों की गोली मार कर हत्या कर दी। घोर आश्चर्य की बात रही कि राज्य बनने के बाद भी इस घटना के दोषियों को सज़ा नहीं हो पायी।
उन्होंने आगे कहा कि इस दिवस को याद करना, इसलिए भी ज़रूरी है ताकि आज के युवा इन घटनाओं से आज के संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए उचित सबक़ ले सकें।
कार्यक्रम में उपस्थित ‘आरंभ’ की नूतन ने कहा कि इस घटना में महिलाओं को अभी तक न्याय न मिलना महिला मुद्दों के प्रति हमारे समाज और राज्य व्यवस्था की संवेदनहीनता को दर्शाता है।वर्तमान में भी ऐसे आंदोलनों में पुलिसिया दमन की शिकार महिलाएँ ही होती हैं। यहाँ तक कि महिलाओं पर होने वाली हिंसा के मसले में दोषपूर्ण रवैये का अंदाज़ा अभी हाथरस में हुई घटना से एक बार फिर स्पष्ट होता है।
हाथरस की ही घटना पर बात आगे बढ़ाते हुए छात्र नेता किशोर कुमार जोशी ने कहा कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों पर यदा कदा ही न्याय मिल पाता है। उन्होंने कहा कि हाथरस की त्रासद घटनाक्रम ने सरकार की अक्षमता और असंवेदनशीलता को तो दिखाया ही, साथ ही हमारे समाज के जातिगत ढाँचे को भी उजागर किया है।
इस अवसर पर अपनी बात रखते हुए पिथौरागढ़ महाविद्यालय के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष राकेश जोशी ने कहा कि प्रदेश के शहीदों को बीते 26 सालों में न तो न्याय मिल पाया है और न ही अब इसकी कोई उम्मीद बची है। यह एक घटना एक उदाहरण है कि अवसरवादी नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों के सत्ता में बने रहने का नतीजा क्या होता है। राकेश ने आगे कहा कि, एक समाज के तौर पर यह बेहद ज़रूरी है कि हम एक पृथक राज्य की स्थापना के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए उन लोगों की याद को ज़िंदा रखें, यह शहादतें हमें बार बार याद दिलाती हैं कि राज्य की स्थापना के उद्देश्य क्या थे और आज हमारा यह राज्य कहाँ खड़ा है!
छात्र दीपक ने कहा कि इस तरह की बर्बर घटनाएँ आज भी युवाओं को आक्रोशित करती हैं और एक अफ़सोस से भर देती हैं कि आख़िर इतनी शहादतों और बलिदानों के बाद मिले राज्य की दशा-दिशा आख़िर ऐसी क्यों है। शिक्षा और स्वास्थ्य की मूलभूत सुविधाएँ तक हमारे जिलों में खस्ताहाल हैं, क्या यह उन शहीदों का अपमान नहीं?
कार्यक्रम का संचालन करते हुए ‘आरंभ’ के शिवम ने कहा कि इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि उत्तराखंड को बनाने के लिए जिन्होंने बड़ी कुर्बानियां दीं उनकी लड़ाई लड़ने वाला तो दूर अब कोई उनके बारे में सोचने वाला भी नहीं है। हम युवाओं को इसकी ज़िम्मेदारी उठानी होगी।
आयोजन का समापन जनगीत के साथ किया गया. इस अवसर पर जनमंच संयोजक भगवान रावत, ‘आरंभ’ के आशीष, चेतना, मुकेश, नितिन, किशोर, सोनल, अंकिता, रजत, सुनील, दिव्यांशु, सूरज, पंकज, अभिषेक, मनीषा, मोनू, पारस समेत दर्जनों छात्र-छात्रा मौजूद रहे।