लोकगीत और श्रम का अटूट रिश्ता रहा है। घस्यारियों (घास काटने वाली महिलाएं ) और ग्वालों के गीत जंगल को भी रंगीला बना देते हैं। माना जाता है कि गीत न केवल हमारे श्रम की रफ्तार को बढ़ते हैं बल्कि थकान भी महसूस नहीं होते देते। हुड़किया बौल भी इसी परंपरा का हिस्सा है। हुड़किया बौल का अर्थ सामूहिक रूप से किये जाने वाले कृषि कार्य के अवसर पर गाया जाने वाला लोकगीत है। हुड़किया बौल का आयोजन मुख्यतः बरसात के मौसम में खरीफ की फसलों के कार्य धान की रोपाई, मडुवे की गुड़ाई के लिए होता है। इस आयोजन में पूरे गांव की भागेदारी होती है। इसमें न काम पता चलता और न ही थकान का।
फटाफट निपट जाता है काम
बरसात के मौसम में कभी बारिश तो कभी तेज धूप में काम करना थकानभरा और उबाऊ होता है। हुड़के की थाप पर गीतों के साथ पता ही नहीं चलता कि रोपाई और गुड़ाई कब पूरी हो गयी। खेती के काम को फटाफट निपटाने के लिए ही शायद हुड़किया बौल शुरुआत हुई होगी।
प्रेम, व्यथा या वीर गाथाएं गाई जाती हैं
हुड़का वादक गीत शुरू करता है और कृषि कार्य में लगे स्त्री पुरुष उन्हीं पंक्तियों को दुहराते हैं। बौल के लोक गीतों में प्रेम गाथाएं, व्यथा गाथाएं या वीर गाथाएं होती हैं। इसमें कुमाऊं क्षेत्र में भीमा कठैत , मालूशाही, कलबिष्ट आदि की लोकगाथाएँ प्रमुख हैं। इनके साथ-साथ कत्यूरी शासक राजा बिरमदेव (ब्रह्मदेव )की कहानी भी प्रमुख है। बौल को शुरू करने से पहले रोपाई या गुड़ाई करने आए लोगों , कृषि यंत्र और बैलों को अक्षत रोली का टीका किया जाता है। ततपश्चात हुड़किया (श्रमगीत गाने वाला) हुड़के की थाप पर देवी देवता , ब्रह्मा, विष्णु, महेश और लोकदेवता भूमिया, ग्वल , हरु और सैम का आह्वान करके कार्य सिद्धि की प्रार्थना करता है। इसके साथ ही हुड़किया बौल शुरू हो जाता है।
हुड़किया बौल के चार रूप
हुड़किया बौल के चार रूप होते हैं। पहला आह्वान, दूसरा प्रार्थना शुभकामना, तीसरा गीत का विषय कथात्मकता और चौथा भाग मंगलकामना होता है। हुड़किया गीत की शुरुआत करता है और कृषिकार्य करने वाले स्त्री पुरुष उन स्वरों को संयुक्त रूप से दोहराते हैं । गीतों की मधुर धुनों में वे इतना खो जाते हैं कि उन्हें थकान का पता ही नहीं चलता और गीत गाते-गाते काम भी निपट जाता है। अंत में हुड़किया दिन ढलने का संकेत देते हुए बार -बार आते रहने की कामना करता है। कृषकों , बैलों आदि के जीवन की मंगल कामना के साथ गीत समाप्त करता है। हुड़किया बौल की परंपरा अब या तो कम हो गयी है या फिर नाममात्र की रह गयी है। इसकी एक वजह खेती प्रति घटना रुझान है तो दूसरी समाज में सामूहिकता के भाव की कमी है।