utt

उत्तराखंड, संघर्ष एवं प्रतिफल

खबर शेयर करें

By CS Karki

वर्षों के संघर्षों का प्रतिफल उत्तराखण्ड राज्य नौ नवम्बर २०२० को दो दशक पूरा कर चुका होगा। इतने समय में कई सरकारें आई और गई। पहाड़ वासियों के असंख्य सपने नित बनते, बसते साकार होते से लगे, आशाओं और आकांक्षाओं के बीच लंबी संघर्ष यात्रा में असंख्य बलिदानों एवं त्याग की स्मृतियां, रस्मी प्रक्रियाओं में बदल गई। पहाड़ और तेज गति से अपने प्राकृतिक संसाधनों और यौवन की प्रतिभाओं को बहाता जा रहा है। दूरस्थ दुर्गमवासी बीमार को पूरा पहाड़ नाप कर मैदान में ही इलाज मिलने की सम्भावना होती है। गरीब का बच्चा हाईस्कूल, इंटरमीडिएट करने के पश्चात शहरों को पलायन करता है, जहां, होटल, फैक्ट्री या कोठी में जीवन खपा देता है। आर्मी में भर्ती होना एक चुनौती है जहां काफी प्रतिस्पर्धा है। पहाड़ों में खुदी सड़कों में प्राइवेट जीपों का चलन है आवागमन जोखिम भरा होता है। इन सड़कों ने पगडंडियों को लील दिया है। अनियोजित पर्वत कटान से हमेशा सिर पर बोझ रखे वाशिंदों का थोड़ा और कष्ट बढ़ गया है। खेती कम लाभकारी हो गई है क्योंकि जंगली जानवरों ने खेतों में अतिक्रमण कर लिया है।

nash nahi rojgar do andolan

Hosting sale

प्राकृतिक संसाधनों, विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों एवं सरल, निश्चल मानव प्रजातियों वाले इस क्षेत्र के राज्यनिर्माण का संघर्ष एवं उसकी परिकल्पना आदर्श थी। लगभग एक शतक पूर्व से परिवर्तन एवं उत्थान के लिए हो रहे निरंतर प्रयासों का परिणाम था उत्तराखण्ड राज्य।

१९१३ के कांग्रेस अधिवेशन में, उत्तराखण्ड के प्रतिनिधियों ने समाज के शिल्पी वर्ग एवं मेहनतकश कामगारों की सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन करने हेतु टम्टा सुधारणी सभा का रूपांतरण शिल्पकार महासभा के रूप में किया। पहाड़ के अपने विशिष्ट मुद्दों पर अपनी अलग पहचान के रूप में सामाजिक परिवर्तन हेतु राष्ट्र के सम्मुख रखा यह प्रथम मौलिक विषमताओं के खिलाफ परिवर्तन के लिए प्रयास था। तत्पश्चात १९१६ में कुमाऊं परिषद की स्थापना सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं के समाधान हेतु की गई। यह पहाड़ के प्रतिनिधि संस्था के रूप में उभर कर, 1926 में प्रांतीय परिषद में भारी जीत हासिल कर सकी। इस प्रकार पहाड़ से एक राजनैतिक शक्ति का विकास प्रारंभ हो गया। उक्त दोनों संगठनों के समन्वय से पहाड़ में राजनैतिक एवं सामाजिक परिवर्तन की छटपटाहट अपनी पहचान के साथ शुरू हुई।

nash nahi rojgar do andolan2

अपने भौगोलिक एवं सामाजिक विभिन्नताओं के साथ परिवर्तनकारी आंदोलनों में शिरकत करते हुए स्वनिर्णय लेने की प्रबल इच्छा संघर्षशील लोगों में हमेशा बनी रहती थी। इसी भावना का स्वागत करते हुए १९३८ में श्रीनगर में आयोजित अधिवेशन में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहाड़ को स्वनिर्णय लेने, अपनी परिस्थितियों के अनुरूप समाज एवं संस्कृति को समृद्ध करने के आंदोलन का समर्थन किया। इसका आशय था कि पहाड़ की विशिष्ट भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि में पहाड़वासी अपने क्षेत्रीय समस्याओं के अनुसार स्वयं निर्णय लेते हुए संघर्ष करें विसंगतियों को दूर करें, इन उद्देश्यों की पूर्ति हेतु, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक चेतना विकसित करने के लिए १९४० में पं. बद्रीदत्त पाण्डे जी द्वारा पर्वतीय क्षेत्र को विशेष दर्जा देने की मांग की, इसके साथ ही कुमाऊ, गढ़वाल को अलग इकाई के रूप में गठन करने की मांग होने लगी।

rampur kand

उत्तराखण्ड में सामाजिक चिंतक, पर्यावरणविद, बुद्धिजीवी एवं राजनैतिक कार्यकर्ताओं का मत पृथक राज्य के संदर्भ में राज करने की पारम्परिक व्यवस्था का स्थान परिवर्तन से नहीं था। उनका मानना था कि एक ऐसी व्यवस्था जिसमें सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का विकास एवं संवर्धन पर्वतीय क्षेत्र के अनुरूप रखते हुए आम जन की आवाज का सम्मान तथा मांग की भरपाई हो। एक ऐसे तंत्र का निर्माण हो जिसमें लोकहितकारी योजनाएं फलीभूत होती दिखाई दें। जहां तन्त्र की फटकार नहीं जन का मत हावी रहे। इसी सोच के साथ उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी ने १९७७, १९७८ में क्रमानुसार गोपेश्वर एवं अल्मोड़ा सम्मेलनों में स्वायत्तशासी प्रदेश की मांग पुरजोर ढंग से रखी। ऐसी व्यवस्था जिसमें निम्न आय वर्ग की जनता, कम जोत वाला किसान, साधनहीन शहरी, दुर्लभ क्षेत्र निवासी ,आदिवासी इत्यादि सभी को शासन की प्राथमिकता मिले। शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सामाजिक कुरीतियों का खात्मा हो।

क्षेत्रीय दल, उत्तराखण्ड क्रांतिदल का उदय १९७९ में हुआ। डा. डी. डी. पंत के वैज्ञानिक सोच की अगुवाई में चलने वाला दल, कुछ हद तक पहाड़ का प्रतीक दल बना। डा. पंत का मानना था कि ऊंची ऊंची इमारतों, ईट सीमेंट और कंक्रीट के जंगलों की वसावट तथा बेतरतीब हरियाली उजाड़कर बनने वाली सड़कें एवं परियोजनाएं वास्तविक विकास नहीं होता।

rampur kand1

१९१३ से अपनी सामाजिक स्थितियों से उद्वेलित राजनैतिक, सांस्कृतिक परिपक्वता को संजोए स्वनिर्णय एवं स्वशासन के लिए तैयार और विकास की साफ नीति की समझ रखने वालों का तितर बितर संगठनों का राज्य स्थापना ९ नवम्बर २००० को लगभग नेपथ्य में चला जाना उत्तराखंड के लिए कमतर सिद्ध हुआ। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की विजय के पश्चात उत्तरांचल राज्य की स्थापना हुई। पहाड़ों से निकले वर्षों से असंख्य आंदोलनकारियों को कहीं धकेलते हुए नित्यानंद स्वामी मुख्यमंत्री बन गए तथा ग्रामीण अंचलों की अनदेखी कर देहरादून राजधानी बन गई। ये सभी निर्णय पहाड़ के आंदोलनों की हंसी उड़ाते से लगने लगे थे। तब से बारी बारी सत्ता परिवर्तन के साथ राष्ट्रीय दल पारम्परिक शासन पद्धति एवं चाल ढाल के साथ पहाड़ में राज करती आ रही हैं।

ऐसा लगता है कि राज्य प्राप्ति के स्वर्णिम मुहाने पर संघर्षशील विचारवान शक्तियां भटक गई, कई ऊर्जावान नौजवानों ने सुविधानुसार बड़ी राजनैतिक ताकतों का सहारा ले लिया। कुलीबेगार आंदोलन, टिहरी राज्य आंदोलन, डोलापालकी आंदोलन, मैती आंदोलन, चिपको आंदोलन, वन बचाओ आंदोलन, श्रमिक सहकारिता आंदोलन, असकोट आराकोट यात्रा, नशा नहीं, रोजगार दो आंदोलन जैसे असख्ंय आंदोलनों की जमीन पर निर्मित उत्तराखण्ड राज्य, अभी भी उसी तड़पन में गुजर रहा है। विकास के मापदण्डों में प्रदेश आशानुरूप उपलब्धि नहीं पा सका। राज्य में तमाम बौद्धिक शक्तियां अपनी प्रबुद्ध क्षमताओं के बावजूद नेतृत्व करने में हिचकती रही हैं। आंदोलनों के गर्भ से निकले विभिन्न प्रकार के संगठन, राजनैतिक पार्टियां, सामाजिक कार्यकर्ता और संस्कृति कर्मियों का तितर बितर हो जाना उत्तराखण्ड में उभरती ऊर्जावान शक्ति को क्षीर्ण कर गई।

Follow us on Google News Follow us on WhatsApp Channel

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top