By G D Pandey
15 अगस्त 1947 का दिन भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। 15 अगस्त एक महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। यह दिन हमारे देश में स्वतंत्रता दिवस के रूप में धूमधाम एवं हर्षोल्लास के साथ तिरंगा झंडा फहराकर ऐतिहासिक लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री द्वारा प्रतिवर्ष देशवासियों के सामने देश की समसामयिक घटनाओं तथा प्रगति का विवरण भाषण के जरिए रखा जाता है।
15 अगस्त को राष्ट्रीय अवकाश होता है और हम सभी आजादी का जश्न मनाते हैं। देश की आम जनता रेडियो, टेलीविजन, सोशल मीडिया तथा सरकारी तंत्र द्वारा प्रचारित, प्रसारित तथा व्याख्यायित ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर अपना सोच बनाती है। समाज का विद्यार्थी तथा बुद्धिजीवी तबका गहराई से अध्ययन करके तथा तथ्यपरक ऐतिहासिक घटनाओं का विश्लेषण करके वास्तविकता को समझने की कोशिश करते हैं।
स्वतंत्रता दिवस हर भारतीय नागरिक के लिए गौरवशाली अवसर है, इस दिन को जोश-व खरोश के साथ मनाने के अतिरिक्त हमें इस दिन कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की पृष्ठभूमि में देश, देश की आजादी, देश भक्तों का योगदान, क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों के अकूत बलिदान, स्वतंत्र भारत में आम लोगों की सामाजिक-आर्थिक दशा और देश की वर्तमान स्थिति की समीक्षा करके आगे के लिए कोई ठोस रिजोल्यूशन लेना चाहिए।
हमें यह भी सोचना चाहिए कि पिछले 73 वर्षों में हमारा देश आत्मनिर्भरता की कितनी सीढ़ियां चढ़ चुका है ? हमारे देश की बौद्धिक संपदा का पलायन क्यों हुआ? रूस और चीन जैसे देश जो एक जमाने में भारत से भी कमजोर अर्थव्यवस्था वाले देश थे वे आज विज्ञान, टेक्नोलाजी समेत सामरिक तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में इतने आगे कैसे बढ़ गए?
वहां पर बेरोजगारी, गरीबी तथा भुखमरी का आंकड़ा भारत की तुलना में नगण्य क्यों है? द्वितीय विश्व युद्ध में (1 सितंबर 1939 से 2 सितंबर 1945) में जापान के हीरोशीमा और नाकाशाकी में अमेरिका द्वारा अगस्त 1945 में परमाणु बमों से मची अभूतपूर्व तबाही के बावजूद जापान दुनिया का एक शक्तिशाली तथा विकसित देश अमेरिका को पीछे छोड़ टेक्नोलाजी में दुनिया का पहले नंबर का देश कैसे बन गया ?
प्रगति और विकास के जरिए शक्तिशाली बनने के अन्य दूसरे कारकों के अलावा इन देशों में सबसे महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय तथ्य यह है कि ये देश स्वराष्ट्रवादी हैं। इन्हें अपने देश से अगाध प्रेम है, इनके लिए राष्ट्रहित सर्वोपरि है। इन देशों के नागरिकों के लिए व्यक्तिगत हित बड़ा नहीं है बल्कि सबसे बड़ा राष्ट्रहित है। इन देशों का मानना है कि राष्ट्र देश का विकास ही उसके नागरिकों के व्यक्तित्व तथा सामाजिक आर्थिक विकास का मूल आधार है। इसलिए समझना होगा कि राष्ट्रवादी तथा स्वराष्ट्रवादी सोच की तुलना में व्यक्तिवादी तथा छद्म राष्ट्रवादी सोच कहां और कितना विकासोन्मुखी है? भारत में राष्ट्रवादी शिक्षा, संस्कृति , विज्ञान- तकनीकि उद्योग धंधों आदि का विकास करने के लिए विचारधारात्मक तथा राजनैतिक, जागृति की बुनियादी आवश्यकता है।
यहां पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 15 अगस्त 1947 के दिन ही भारत को आजादी क्यों मिली?क्या हमने अंग्रेजों को देश से निकाल बाहर किया था या ब्रिटिश शासक अपनी सुनियोजित नीति एवं अपने आंतरिक कारणों से भारत का शासन भारत के शासक वर्ग के हाथों में हस्तांतरित कर दिया?
इस संदर्भ में तथ्य यह दर्शता है कि 3 जून 1947 को ब्रिटिश शासक, भारत में अंतिम गवर्नर जनरल, लार्ड़ माउंटबेटन द्वारा तैयार किया गया भारत स्वतंत्रता की योजना का मसौदा । चार जुलाई 1947 को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की सुनिश्चित उक्त योजना के आधार पर तैयार किया गया भारत स्वतंत्रता विधेयक ब्रिटिश संसद में पेश किया गया और 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने उस विधेयक को अधिनियम बनाकर भारत और पाकिस्तान को दो अलग अलग देश घोषित कर दिया, भारत के शासकों के हाथ में सत्ता हस्तांतरण की तारीख उसी अधिनियम के तहत 15 अगस्त 1947 रखी गई थी ।
भारत माता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए भारत की देशभक्त जनता ने समय-समय पर जन आन्दोलनों तथा साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों के जरिए अंग्रेजी हुकूमत की नींव को हिलाने में कोई भी बलिदान देशभक्ति से बड़ा नहीं समझा।
सन् 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रा संग्राम में हजारों हजार देशभक्तों व वीर सपूतों ने अदम्य साहस दिखलाया अपने प्राणों को भारत माता की शान बचाने के लिए कुर्बान कर दिया। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे देश भक्तों ने उद्घोष किया, ‘स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है, मैं उसे लेकर रहूंगा’।
साइमन कमिशन वापस जाओ (गोबैक) के नारों के साथ एक जुलूस में भारत के क्रांतिकारी योद्धा लाला लाजपत राज पर अंधाधुंध लाठियां बरसायी गयी।उन्होंने अपने अंतिम भाषण में कहा था, मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ‘अंग्रेजी सरकार के कफन में कील साबित होगी’। लाल, बाल, पाल की तिगड़ी के तीसरे क्रांतिकारी योद्धा विपिन चन्द्र पाल ने अपने लेखन भाषण तथा क्रांतिकारी गतिविधियों से अंग्रेजी हुकूमत में खलबली मचा दी थी।
इनका स्पष्ट विचार था कि उपभोक्ता की सारी वस्तुयें देश में ही निर्मित हो सकती हैं और इसके लिए स्वदेशी आंदोलन चलाया जाना चाहीए। इन क्रांतिकारीयों ने महसूस किया था कि विदेशी उत्पादों से देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ रही है और लोगों का काम भी छिन रहा है। ब्रिटेन में तैयार उत्पादों का बहिष्कार तथा मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज तथा औद्योगिक व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल कराकर ब्रिटिश शासकों की नींद उड़ा दी थी। क्रांतिकारी पाल ने कहा था,”नरम दल के ‘प्रयेर पिटीशन’ से स्वराज नहीं मिलने वाला है बल्कि स्वराज के लिए विदेशी हुकूमत पर करारा प्रहरा करना पड़ेगा।
हजारों की संख्या में युवा क्रांतिकारी जो हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में राम प्रसाद विस्मिल के क्रांतिकारी नेतृत्व में ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लोहा ले रहे थे। काकोरी कांड के बाद राम प्रसाद बिस्मिल सहित चार क्रांतिकारियों को अंग्रेजी हुकूमत द्वारा फांसी पर लटकाने के बाद भी आजादी के दीवानों का मनोबल कम नहीं हुआ।
हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन तथा भगत सिंह की भारत नौजवान सभा ने सन् 1928 में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया और इस क्रांतिकारी संगठन के बैनर तले सशस्त्र संघर्ष द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए देश की क्रांतिकारी ताकतों को गोलबंद किया।
इन संगठनों में संगठित क्रांतिकारियों ने देश में क्रांतिकारी गतिविधियों के जरिये साम्राज्यवाद विरोधी क्रांति की लहर फैला दी थी। विडंबना इस बात की है कि तत्कालीन ‘नरमपंथी’ तथा अग्रेजों से भारत छोड़ने की प्रार्थना करने वाले संगठनों तथा अंग्रेजों के चंद चहेतों ने अंग्रेजों से मिलकर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से क्रांतिकारियों का विरोध किया और साम्राज्यवादी नीतियों का समर्थन किया ।
परिणामस्वरूप 23 मार्च 1931 को तीन क्रांतिकारी सूरवीरों को फांसी पर लटका दिया। शहीद-ए- आजम भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव ने इ्र्रन्कलाब- जिंदाबाद के नारों के साथ फांसी के फन्दों को चूम लिया। भगत सिंह ने अपने लेखों में विद्यार्थियों का आह्वान किया कि वे राजनीति में आयें और देशभक्ति का जज्बा दिखाकर अंग्रेजी राज का खात्मा करने के लिए आगे आयें। क्रांतिकारी भगत सिंह ने लिखा कि साम्राज्यवाद को नेस्तनाबूद करने व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने पर ही स्वराज की स्थापना हो सकती है।
1931 के बाद देश में क्रांतिकारी लहर कमजोर पड़ने लगी और अंग्रेजी हुकूमत को किसी का कोई खौफ नहीं रहा। अतः 15 अगस्त 1947 को आजादी के नाम पर सत्ता हस्तान्तरण हो गया तब से आज तक पिछले 73 वर्षों से भारत का शासन देशी शासकों के हाथों में खेल रहा है। यदि क्रांतिकारी तरीके से स्वराज की प्राप्ति हो जाती तो भारत निःसंदेह अभी तक आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ विश्वगुरु बन गया होता।
सन् 2020 में, कोरोनाकाल में आत्मनिर्भर भारत का नारा उद्घोषित किया गया है। इस नारे की सार्थकता को उद्घोषक भी अच्छी तरह समझते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था की जड़े 1947 से पहले भी और उसके बाद आजतक भी विदेशी कंपनियों तथा बहुराष्ट्रीय कारपोरेट्स के जाल में जकड़ी हुई हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि भारत में स्वदेशी तथा स्वावलम्बी अर्थव्यवस्था को पनपने नहीं दिया गया, बल्कि देशी उद्योग-धंधों को विदेशी उत्पादों ने छिन्न-भिन्न करके बाजार पर कब्जा कर लिया ताकि सीधे विदेशी पूंजीपतियों को आर्थिक लाभ पहुंचे इसीलिए वे भारत को कभी भी आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने देना नहीं चाहते पूंजीवाद की यह चारित्रिक विशेषता है कि वह पूंजी के साम्राज्य को फैलाकर आर्थिक एवं राजनीतिक आधिपत्य कायम कर लेता है और साम्राज्य को फैलाना और उसे कायम रखना तब तक नहीं छोड़ता जब तक कि उसका विनाश न हो जाए।
सामाजिक सुधारों तथा आर्थिक क्षेत्र में घरेलू कुटीर उद्योगों तथा छोटे उद्यमियों को प्रोत्साहित करने मात्र से आत्मनिर्भता अथवा आर्थिक स्वावलंबन की दिशा में प्रभावी प्रगति नहीं हो सकती जब तक कि बाजार में आधुनिकतम तरीके से निर्मित पसंदीदा तथा सस्ते उत्पादों का विकल्प तैयार न हो जाए। विकल्प तभी तैयार हो सकता है जब विदेशी का बहिष्कार तथा स्वदेशी का विकास सामानान्तर चलें।
गांधीजी ने स्वदेशी कपड़े तथा कुटीर उद्योग के लिए चरखा चलाकर घर-घर में कपास से सूत की कताई का जो कार्य देश में चलाया, वह प्रभावी सिद्ध नहीं हुआ, बाजार पर पकड़ नहीं बना पाया। उद्योग के रूप में विकसित नहीं हो सका क्योंकि ब्रिटेन तथा भारत में उस समय मैनचेस्टर की मिलों के कपड़ों का बहिष्कार, जिसे एक आंदोलन के रूप में तत्कालीन क्रांतिकारियों द्वारा चलाया जा रहा था। उसे गांधी जी तथा अंग्रेजों के प्रति नरमपंथी लोगों द्वारा पुरजोर समर्थन तथा संकल्प के साथ आगे नहीं बढ़या गया।
बल्कि उस बहिष्कार के क्रांतिकारी तरीके को नजरअंदाज करके ‘प्रार्थना याचिका’ (पे्रयर पिटिशन ) के तरीके से सुधार लाने की नाकाम कोशिश की गई परिणामस्वरूप आत्मनिर्भता के स्थान पर पराधीनता ही आर्थिक क्षेत्र में फलती-फूलती रही और साम्राज्यवादी आधिपत्य बरकरार रहा। वर्तमान में भारत आधुनिकतम लड़ाकू विमान तथा सामरिक हथियारों की खरीद-फरोख्त के लिए अमेरीका, रूस तथा जापान पर प्रमुख रूप से निर्भर है। हैल्थकेयर उपकरण वैंटिलेटर, मास्क तथा पीपीई किट इत्यादि अमेरीका, चीन, जापान आदि देशों से खरीदता है। दुनिया की फार्मेसी कहलाने वाला हमारा देश लगभग 80 प्रतिशत कच्चा माल दवाइयां बनाने के लिए चीन से खरीदने पर मजबूर है। आर्थिक क्षेत्र के हर सैक्टर में भारत का बाजार बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर निर्भर है। ऐसी परिस्थितियों के चलते ऊपरी तौर पर लोकल-वोकल और ग्लोबल जैसे शब्द के समन्वय से आत्मनिर्भरता का नारा इस दौर में भी आत्मनिर्भर देश नहीं बना पाएगा। जब तक कि ठोस सर्वे तथा वास्तविक तथ्यों के आधार पर आर्थिक नीति को बुनियादी तौर पर नेतृत्व न दिया जाए।