प्रताप सिंह नेगी
फूलदेई का त्यैहार उत्तराखंड के समाज के लिए विशेष पारंपरिक महत्व रखता है। चैत्र महीने की संक्रांति को मनाया जाने वाला यह त्यौहार इस साल 15 मार्च यानी कल मनाया जाएगा। इस त्यौहार में छोटे छोटे बच्चे विभिन्ïन प्रकार के फूलों से अपनी थाली और टोकरियां सजाकर सुबह उठते ही अपने ईष्ट देवी देवताओं को ताजे ताजे पुष्प चढ़ाते हैं। इसके बाद बच्चे टोलियां बनाकर गांव, परिवार ओर पड़ोस के घरों में फूल डालने जाती हैं। बच्चे हर घर की देहली (दरवाजे के चौखट) से अंदर की ओर फूल चढ़ाते हुए जाते हैं और समूह में गीत भी गाते हैं-
फूलदेई छमा देई।
दैणी द्वार, भर भकार
य देई में हो, खुशी अपार
जतुक देला, उतुक पाला,
य देई कैं बारम्बार नमस्कार
फूल देई, छम्मा देई।।
घर पर फूल डालने आए बच्चों को फिर गुड़, चावल व पैसे दिए जाते हैं जिससे बच्चों के चेहरे खिल उठते हैं। गढ़वाल मंडल में इस त्यौहार को फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई कहा जाता है। फूल डालने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है। इस खास मौके पर फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भर भकार……। जैसे लोक गीत बच्चे गुनगुनाते सुने जा सकते हैं।
फुलदेई की पौराणिक कहानियां
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार फूलदेई त्यौहार को मनाने के पीछे एक रोचक कहानी भी है। कहा जाता है कि माता पार्वती की ससुराल जाने की विदाई हो रही थी तब वे तिल-चावल से देहली भेंट कर रही थी तो उनकी सहेलियों ने रुंआंसे स्वर में कहा पार्वती तुम तो यहां से विदा हो रही हेा अब हम तुम्हें किस तरह याद करेंगे कि तुम हमें अपनी कुछ निशानी यहां छोड़ दो, तब माता पार्वती प्रसन्ïन मुद्रा में खिलखिलाते हुए तिल-चावल से देहली भेटने लगी, उनकी खिलखिलाहट से तिल-चावल पीले पीले फूलों में बदल गए और उन्हीं का नाम प्यूली फूल रखा गया। तब माता पार्वती ने अपनी सहेलियों से कहा कि जब भी तुम इन पीले पीले फूलों को देही पर बिखेरोगी तो इन फूलों में तुम्हें मेरा प्रतिबिंब दिखाई देगा। तभी से चैत्र माह के एक गते को फुलदेई का त्यौहार मनाया जाने लगा।
इस महीने में हिंदू नववर्ष की शुरूआत भी होती है। इस मौसम में त्तराखंड के पहाड़ी इलाकोंं में अनेक प्रकार के खूबसूरत और रंग-बिरंगे फूल खिले रहतेे हैं। फूलदेई त्यौहार में द्वार पूजा के लिए एक जंगली फूल का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे फ्यूली कहते हैं। इस फूल और फूलदेई के त्यौहार को लेकर उत्तराखंड में एक लोककथा फ्यूंली के पीले फूलों से जुड़ी हैं। कहावत है कि एक वनकन्या थी, जिसका नाम था फ्यूंली। फ्यूली जंगल में रहती थी। जंगल के पेड़ पौधे और जानवर ही उसका परिवार थे और दोस्त भी। फ्यूंली की वजह से जंगल और पहाड़ों में हरियाली थी और खुशहाली थी। एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली ने उससे शादी कर ली और पहाड़ को छोड़कर उसके साथ महल चली गई। फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुर्झाने लगे, नदियां सूखने लगीं। उधर महल में फ्यूंली ख़ुद बहुत बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस पहाड़ छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोडऩे को तैयार नहीं था…और एक दिन फ्यूंली मर गई। मरते-मरते उसने राजकुमार से गुज़ारिश की कि उसका शव पहाड़ में ही कहीं दफना दे। फ्यूंली का शरीर राजकुमार ने पहाड़ की उसी चोटी पर जाकर दफनाया जहां से वो उसे लेकर आया था। जिस जगह पर फ्यूंली को दफनाया गया, कुछ महीनों बाद वहां एक फूल खिला, जिसे फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई।