गै की जीत, खतडुवे की हार
प्रताप सिंह नेगी
वर्षा ऋतुु के समापन और शरद ऋतु के शुभारंभ मेंं यानि आश्विन महीने के संक्रांति के दिन मनाया जाने वाला खतडुवा जिसे गाईत्यार(गायों का त्यौहार) भी कहते हैं आज समूचे कुमाऊं में मनाया जाता है। खतडुवा त्यौहार प्राचीन काल से ही पशु धन को लगने वाली बिमारियों की रोक व पूस माघ के डंठ से बचने के लिए टुटका वाला त्यौहार भी है। खतडुवा त्यौहार की एक अलग ही पहचान है, गांवों में आज के दिन अपनी अपनी बिरादरी के लोग अपने घर से थोडा दूर खतडुवा देवता का मंदिर बनाते हैं और उस मंदिर के बाहर छोटे-छोटे पत्थरों को रख कर अपने अपने घरेलू पशुओं का नाम रखते हैं। मंदिर के सामने ही दो खंबे गाड़े जाते हं, उन खंबो में पीरूल घास भूसा डालकर ऊंचा टीलानुमा बना बनाया जाता है। घर के बड़े बुजुर्ग इस खतडुवा देवता की पूजा के लिए चीड के छिलके, बेटूली के टैहनी, पारी पौधे की टहनी बांध कर ककड़ी, अमरुद, केला, पंच मेवा पंच मिठाई के साथ चीढ़ के छिलके जलाकर बेटूली की टहनी, पारी पौधे की टहनी लपेटी हुई मसाल लेकर अपने-अपने घरों से निकलते हैं और आस पड़ोस के लोग टोली बनाकर खतुडवा मंदिर में जाते हैं। यह कार्यक्रम दिन ढलने के बाद संध्या काल के समय होता है। अपने घरों से मसाल लेकर निकलते लोग भैलो खतडुवा भैलो और खतडुवा व कसेर मसेर भाग जा हमारे जानवरों की रक्षा कर जा नारे लगाते हुए मसाल लेकर उस मंदिर में जाते हैं जहां खतडुवा का मंदिर बना होता है। इसके साथ ही गै की जीत और खतडुवे की हार, भाग खतुड़वा भाग करके आवाज लगाई जाती है। और पशुओं के रक्षा और निरोगी काया के लिए प्रार्थना की जाती है।
मसाल को खतडुवा के मंदिर के पास रखकर खतडुवा देवता की पूजा बिधि विधान के साथ की जाती है। उसके बाद खतडुवा देवता मंदिर के पास जो घासफूस का टीला बनाया जाता है उसकी पांच बार परिक्रमा करके उसमें आग लगाई जाती है। आग लगाने के बाद फिर मंदिर के प्रसाद ककड़ी, भुने हुए गेहूं, चावल इत्यादि आपस में बांटे जाते हैं। और फिर सभी लोग वापस अपने अपने घरों की ओर लौटते हैं। घर आने के बाद जली हुई मसाल की लकड़ी से पालतू पशुओं के चरणों पर स्पर्श की जाती है और पेड़ पौधों को स्पर्श करवाई जाती है। इसके बाद घर के सभी लोग जली उस मसाल से आग सेकते हैं। कहावत यह भी है कि जो इस मसाल की आग को सेकता है उसे सर्दियों के मौसम में सर्दी कम लगती है।