क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में 22 अप्रैल का दिन एक अहम दिन माना जाता है। 22 अप्रैल 1870 को सोवियत क्रांति (1917) के क्रांतिकारी योद्धा तथा लेनिनवादी युग के युगाधार व्लादिमीर इलीइच लेनिन का जन्म हुआ था। इसी दिन वर्ष 2000 में संघर्षों की विरासत को छोड़कर कामरेड मोहन पाण्डे अलविदा हो गए। उत्तराखंड में वामपंथी व जन आंदोलनों की राजनीतिक करने वालों के लिए यह अपूरणीय क्षति थी।
By G.D.Pandey, New Delhi
21 साल पहले 22 अप्रैल यानी आज के ही दिन कामरेड मोहन पाण्डे को बीमारी ने हमसे छीन लिया । उम्र के 50वें पड़ाव में वह दोहरे संघर्ष से जूझ रहे थे। एक तरफ उत्तराखंड के किसानों व ग्रामीण वंचित तबकों की बुनियादी समस्याओं को हल कराने के लिए शासन प्रशासन से जद्दोजहद में लगे थे, और दूसरी तरफ शारीरिक समस्या से निदान पाने के लिए आंतरिक संघर्ष में जानलेवा बीमारी से लोहा ले रहे थे। वर्ष 2000 में संघर्षों की विरासत छोड़कर वह अलविदा हो गए। उत्तराखंड में वामपंथी व जन आंदोलनों की राजनीतिक करने वालों के लिए यह अपूरणीय क्षति थी।
कामरेड पाण्डे को सामाजिक चेतना का विचार स्कूली दौर में अपने अध्यापक बहादुर सिंह अधिकारी और जगदीश पंत से मिला था। ये उस दौर के चेतनशील शिक्षक थे, जो अपने विद्यार्थियों को सामाजिक दर्शन से भी वाकिफ कराते थे। छात्र जीवन के विचारों की परिपक्वता के लिए प्रगतिशील साहित्य और आंदोलनों के व्यवहारिक अनुभवों ने मोहन पाण्डे को मानसिक रूप से फौलादी बना दिया। उन्होंने अपने सामाजिक जीवन में अनेक जनसंघर्षों का नेतृत्व किया।
सरकारी शिक्षक ही नहीं ग्रामीण जनता के भी शिक्षक
ग्रामीण परिवेश होने के कारण कई प्राइमरी शिक्षक गांव की जनता से अभिन्न रूप से जुड़े रहते हैं। मोहन पाण्डे भी ऐसे ही शिक्षकों में शामिल थे। नौकरी के दौरान वह एक सरकारी शिक्षक तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने ग्रामीण जनता को भी शिक्षित कर उनकी चेतना का स्तर बढ़ाया। स्कूल से छुट्टी होने के बाद गांवों में जाना और ग्रामीणों की समस्याओं पर चर्चा करने के साथ-साथ उन्हें बेहतर जिंदगी की राह दिखाने का काम भी किया। नौकरी के अलावा उनकी भूमिका सामाजिक शिक्षक व आंदोलनकारी की थी। उनका घर समाज, देश दुनिया और बेहतर जिंदगी के लिए बदलाव की चर्चा और इसके लिए शिक्षित करने का केंद्र भी था। वह किसी भी इलाके में शिक्षक रहे हों,मगर ग्रामीण जनता से उनका जीवंत रिश्ता बना रहा। यही वजह थी कि उनके पढ़ाए हुए छात्र भी बाद उनके आंदोलनों के साथी बने।
शिक्षक यूनियन में भी था खासा दखल
बेहतर समाज के लिए संघर्ष और सामाजिक बदलाव के इस अभियान में वह अकेले नहीं थे। बकायदा इसमें शिक्षकों का एक ग्रुप शामिल था। वामपंथी चेतना वाले यह शिक्षक अपनी यूनियन में भी खासा दखल रखते थे। शिक्षकों के इस ग्रुप में मोहन पाण्डे के अलावा केडी मिश्रा व कस्तुबानन्द भट्ट आदि सक्रिय रूप से शामिल थे। मोहन पाण्डे प्राइमरी शिक्षक संघ अल्मोड़ा के उपाध्यक्ष भी रहे। शिक्षक संघ में इन सब की छवि ईमानदार और जुझारू शिक्षक नेताओं की थी। मोहन पांडे के नौकरी छोड़ने के बाद भी चेतनशील शिक्षकों का आंदोलनों को सहयोग मिलता रहा। शिक्षक यूनियन में केडी मिश्रा प्राथमिक शिक्षक संघ अल्मोड़ा के अध्यक्ष रहे।
अपने गांव के लिए भी किया संघर्ष
मोहन पाण्डे ने आंदोलनों की शुरुआत अपने गांव व आसपास के इलाके की। अपने गांव, अंडोली के साथ ही धौलादेवी ब्लाक के अंतर्गत आने वाले गांवों में जनसंघर्ष समितियों का गठन कर जनता की जायज मांगों को प्रशासन तक पहुंचाया। जन्मभूमि होने के नाते उन्हें अपने गांव से गहरा लगाव था। अंडोली में पोस्ट आफिस, स्कूल, बिजली, पानी, मोटर मार्ग, विकास कार्यो में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में वह गांव के संघर्षों में प्रमुख रहे। उन्होंने विचार और संघर्षों के लिए कभी समझौता नहीं किया। एक बार उन्होंने मोटर मार्ग नहीं तो वोट नहीं के नारे पर चुनाव बहिष्कार की अपील की। मगर इसमें वह राजनीतिक रूप से अपने पिता के खिलाफ हो गए। क्योंकि पिता वोट के पक्ष में थे। अंडोली मोटर मार्ग के लिए वर्ष 1980 से पत्राचार तथा समय-समय पर धरना प्रदर्शन चलते रहे। तत्कालीन सरकारी बजट के अनुसार मोहन पाण्डे के जीते जी जीप मार्ग बन गया, लेकिन तब से स्थिति जस की तस है। गांव के लोगों ने इसके लिए प्रयास भी किये। लेकिन कुछ स्वार्थी तत्वों ने मोटर मार्ग के कार्य को अंतिम चरण तक नहीं पहुंचने दिया। क्षेत्र के आम लोगों की जुबान में एक ही बात है कि मोहन पाण्डे जीवित होते, तो यह मोटर मार्ग कब का बन गया होता।
इन आंदोलनों को दिया नेतृत्व
साल 1980 से 1990 के बीच मोहन पाण्डे ने कई जन आंदोलनों का कुशल नेतृत्व किया। जिसमें ग्रामीणों के खाद-बीज का आंदोलन, वन-खन पर जनता के हक-हकूकों का आंदोलन, झांकर सैंम मंदिर के दायरे में आने वाले देवदार के वृक्षों की माफियाओं द्वारा कटाई के विरुद्ध आंदोलन, लीसा मजदूरों का ठेकेदारों द्वारा होने वाले शोषण के विरुद्ध आंदोलन, बिनसर सेंक्चुरी तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन प्रमुख हैं। इन आंदोलनों में टीडी कविदयाल, शिवराज सिंह बगडवाल, खीमराज बोरा, भानु प्रताप, जगत सिंह राणा, चतुर सिंह राणा, लक्ष्मी दत्त पाण्डे, खीमानंद पाण्डे, रेवाधर पाण्डे, जोगा राम कई अन्य लोग सक्रिय थे। प्रगतिशील विचारों में मोहन पाण्डे के साथी पीसी तिवारी, रघु तिवारी तथा अन्य कई लोग शामिल थे। महिला मोर्चे से गांव अंडोली के विकास के आंदोलनों में हेमा भट्ट, जीवंती देवी, लक्ष्मी देवी प्रमुख थे। मोहन पाण्डे को घर परिवार का पूरा समर्थन प्राप्त था, परिवार के सभी लोग संघर्षों और आंदोलनों में उनके साथ रहते थे।
जन संघर्षों के लिए बना था किसान संगठन
जनपद स्तर पर जन आंदोलनों की ठोस समीक्षा प्रत्यक्ष अनुभव तथा जन-आंकाक्षाओं के अनुरूप वर्ष 1995 में उत्तराखंड किसान संगठन की स्थापना की गई, जिसके संस्थापक अध्यक्ष मोहन पाण्डे ही थे। उत्तराखंड किसान संगठन ने गांव-गांव जाकर जन समस्याओं खासकर किसानों की मूलभूत समस्याओं का चार्टर आफ डिमांड तैयार किया। उत्तराखंड स्तर पर बुद्धिजीवियों का भी किसान संगठन को भरपूर समर्थन मिला। मोहन पाण्डे इस व्यापक कार्य में असीम सक्रियता के साथ जूझ रहे थे कि अचानक उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा। काफी समय तक दिल्ली में इलाज भी चला, लेकिन 22 अप्रैल 2000 को वह हम सभी को छोड़कर चले गए। ग्राम भगरतोला में स्वर्गीय मोहन पाण्डे का स्मारक भी बना हुआ है।
मोहन पाण्डे का यही कहना था कि जीवन में दो तरह के संघर्ष होते हैं एक आंतरिक, दूसरा बाह्य/ बाहरी संघर्ष । आंतरिक संघर्ष में मनुष्य को स्वयं से लड़ना पड़ता है अथवा किसी बीमारी से जूझना होता है और बाहरी संघर्ष में जन समस्याओं एवं सामाजिक विकास के लिए संघर्ष करना होता है। कर्मठ साहसी निडर परिपक्व बुद्धिजीवी लोकप्रिय तथा जुझारू नेतृत्व की भूमिका में मोहन पाण्डे को हमेशा याद किया जाएगा।
विरासत में मिला स्कूली शिक्षा के लिए संघर्ष
मोहन चन्द्र पाण्डे का जन्म वर्ष 1949 में उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के ग्राम अंडोली के धूरा तोक में पिता गोवर्द्धन, मां देवकी के घर में हुआ था। ग्राम अंडोली के अन्य परिवारों की तरह ही मोहन पाण्डे का परिवार भी एक गरीब परिवार था, परंतु पिता गोवरद्धन पाण्डे उस समय के मिडिल पास थे जो कि अपने गांव में मिडिल पास करने वाले पहले एवं एकमात्र व्यक्ति थे। स्व. गोवरद्धन पाण्डे ने सन 1930-31 में मिडिल पास उस दौर में किया जब देसी रियासतें ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जंजीरों में जकड़ी हुई थी, उस समय का भारत आज का भारत नहीं था। बल्कि भारत देसी रियासतों में बंटा था, इसीलिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने लगभग सौ वर्षों तक सोने की चिड़िया कहलाने वाली हमारी मातृ भूमि को गुलामी की बेड़ियों में बांधे रखा।
माता-पिता की गुलामी के दौर की पृष्ठभूमि तथा राजनीतिक रूप से स्वतंत्र भारत में 1949 में मोहन पाण्डे ने संघर्षो की धरती में आंखें खोली। स्कूली शिक्षा के लिए संघर्ष करना उन्हें विरासत में मिला। पिता का सहयोग व समर्थन मोहन पाण्डे की पढ़ाई में भरपूर रहा और कठिन आर्थिक स्थिति के चलते उन्होंने दसवीं कक्षा पनुवानौला से उत्तीर्ण की और फिर ताड़ीखेत के प्राइमरी शिक्षक प्रशिक्षण (बीटीसी ) पास किया। सन 1970 में उनकी अल्मोड़ा जनपद के सल्ट ब्लाक में प्राइमरी टीचर की पहली नियुक्ति हुई। कुछ समय पश्चात प्राइमरी पाठशाला भगरतोला व अंडोली में अध्यापन का कार्य किया। अध्यापन के साथ-साथ सामाजिक कार्यों में बढ़-चढ़कर भागीदारी करना, प्रगतिशील साहित्य का अध्ययन तथा अपनी शैक्षिक योग्यता को बढ़ाने जैसे कार्यों में मोहन पाण्डे व्यस्त रहते थे। सन् 1980 में कुमाऊं विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की, लेकिन उनका मुख्य अध्ययन समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र तथा राजनीतिक शास्त्र के क्षेत्रों में पाठ्यक्रमों से और आगे गहन अध्ययन पर केन्द्रित रहा।
कविता के माध्यम से सलाम…
देश हमारा धरती अपनी हम धरती के लाल, विश्व धरती दिवस पर वीरों को सलाम लाल। आज़ादी की जंग हो या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम, सामंतवाद का खात्मा या साम्राज्यवाद विरोधी संग्राम, बलिदान किया सपूतों ने लहू लाल ही लाल, धरती दिवस पर हमारा सपूतों को सलाम लाल।
संकल्प धरती बचाने का दिन था अप्रैल 22, रूस की धरती में लेनिन पैदा हुए अप्रैल 22, उत्तराखंड की धरती से एमसी पांडे गए अप्रैल 22, वर्ष अलग थे मगर तारीख वही अप्रैल 22, देश हमारा धरती अपनी हम धरती के लाल, विश्व धरती दिवस पर सपूतों को सलाम लाल..
लेखक का जुझारू किसान नेता एमसी पाण्डे को वैचारिक सलाम