By G D Pandey
विश्व की तमाम बड़ी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के अचानक धराशाही होने की कगार पर पहुंचने के साथ ही भारत की मौजूदा अर्थव्यवस्था भी चरमाराने लगी है और बेसहारा होकर खामोश हो गई। इस तरह की खामोशी के बीच हमारे प्रधानमंत्री ने भारत को सोने की चिड़ियां तथा ‘विश्व गुरू’ बनाने के सुहाने सपनों के साये में तुरत-फुरत ‘आत्मनिर्भरता की भव्य इमारत’ बनाने का सब्जबाग भारत की भव्य इमारतें तथा इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण कार्यों में अपना श्रम बेचकर जिन्दा रहने वाले बहुसंख्यक श्रमजीवी आवाम को बखूबी दिखाने की एकमुश्त कोशिश कर डाली । इस आर्थिक आत्मनिर्भरता की मनमोहक छवि को आर्थिक राष्ट्रवाद के सिद्धांत की परिधि में देखना जरूरी हो जाता है ताकि इस नयी थ्योरी की वास्तविकता का कुछ हद तक सैद्धांतिक तथा व्यवहारिक रूप आम लोगों की समझ में आ सके ।

राष्ट्रवाद एक व्यापक विचार
आर्थिक राष्ट्रवाद को समझने से पहले राष्ट्रवाद को समझने की कोशिश करनी चाहिए। राष्ट्रवाद की अवधारणा क्या है, इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए थोड़ा इतिहास और राजनीतिक विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है । यों तो राष्ट्रवाद एक व्यापक विचार है। यह दो शब्दों से मिलकर बना है अर्थात राष्ट्र और वाद, तकनीकी की तौर पर राष्ट्र एक सांस्कृतिक विचार है। विद्वानों द्वारा राष्ट्रवाद को एक राजनीतिक विचार भी माना जाता है। दरअसल राष्ट्र शब्द का बुनियादी स्रोत और अविर्भाव सांस्कृतिक परिवेश में ही निहित माना जाता है। जब एक समाज जीवनशैली के लोग एक साझी संस्कृति, साझे मूल्य, साझा रहन-सहन और साझी विरासत वाले लोग एक संस्कृति को धारण करते हैं, तो उससे एकजुटता और एकता की प्रबल भावना जिस भू-भाग में मौजूद रहती है उसे इतिहासकारों ने राष्ट्र नाम दिया है। वाद शब्द का अभिप्राय है – समर्पण, आकर्षण, गौरव, रक्षा की भावना और वर्चस्व की भावना है। अतः राष्ट्र + वाद = राष्ट्रवाद अर्थात एक भू-भाग में समान जीवनशैली, समान मूल्य, साझी संस्कृति और साझी विरासत के प्रति समर्पण, आकर्षण, गौरव, उसकी रक्षा तथा उसके वर्चस्व की भावना राष्ट्रवाद कहलाती है ।
सामान्यतया राष्ट्र को कुछ लोग देश समझ लेते हैं जबकि देश का वास्तविक स्वरूप राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) कहलाता है। राष्ट्रराज्य (देश) उसे कहते हैं जिसका एक निश्चित भू-भाग हो, निश्चित सीमायें हों, उसकी जनसंख्या, सरकार तथा सम्प्रभुता हो। राज्य से अभिप्राय किसी प्रान्त, जैसे भारत में 28 राज्य या प्रान्त हैं, से नहीं है। राजनैतिक संदर्भों में राष्ट्रराज्य ही देश और राष्ट्रवाद ही सच्चे अर्थाें में देशभक्ति को चिन्हित करते हैं। राष्ट्रवाद का तात्पर्य देश का हित सबसे ऊपर है उसके मातहत ही समाज, परिवार और उसके व्यक्ति का हित आना चाहिए। इसी भावना को राष्ट्रवाद या देशभक्ति की भावना कहा जाता है। राष्ट्रवाद पर अमल करने वालों को राष्ट्रवादी कहते हैं। भारत में राष्ट्रवाद का उदय प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (1857 ) से कुछ वर्ष पूर्व 1847 के आसपास अपरिपक्व राष्ट्रवाद के रूप में हुआ और 1857 तक के काल में यह विकसित रूप में सामने आया ।
राष्ट्रवादी भावना के तहत इंकलाब का नारा बुलन्द
सन् 1920 तक राष्ट्रवाद की तीन विचारधारायें सामने आने लगी। एक नरमपंथी विचारधारा जिसका नेतृत्व प्रारंभ में पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कर रहे थे। बाद में सुभाष चन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज की स्थापना की थी। दूसरा गरमपंथी विचारधारा जिसका नेतृत्व क्रांतिकारी युवा कर रहे थे जिनमें भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों से पहले लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक तथा विपिन चंदपाल अर्थात लाल, बाल और पाल जैसे गरमपंथी नेता अंग्रेजों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए राष्ट्रवादी भावना के तहत इंकलाब का नारा बुलन्द कर रहे थे। तीसरा गांधीपंथी विचारधारा के तहत ‘ यदि कोई आपके एक गाल में थप्पड़ मारे तो उसे अपना दूसरा गाल भी दे दो’ की नीति द्वारा अंग्रेजों से भारत छोड़ने के लिए अनुनय-विनय करने तथा शान्तिपूर्ण सत्याग्रह चलाने के लिए भारत की जनता को 1947 तक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाया गया और 15 अगस्त 1947 से ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रत्यक्ष शासन भारत में नहीं रहा लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन कामन वैल्थ (राष्ट्रमंडल) का सदस्य बनाये रखने और भारत पाकिस्तान का बंटवारा करने के काम किए गये। राष्ट्रवाद का यह स्वरूप राजनीतिक था जिसने राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक और आर्थिक स्वरूपों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नव औपनिवेशिक नीति के मातहत रख दिया। परिणाम स्वरूप आज तक भी आर्थिक आत्म निर्भरता तथा आर्थक राष्ट्रवाद पनप ही नहीं पाये और भारत की प्राचीन ग्रामीण स्वावलम्बी अर्थव्यवस्था साम्राज्यवाद के मुंह का चवेना बन गयी।
आइये, अब यहां पर आर्थिक राष्ट्रवाद को समझने की कोशिश करें। आर्थिक राष्ट्रवाद का मतलब है राष्ट्रवाद की आर्थिक अवधारणा, अर्थात स्वराष्ट्र में आर्थिक संसाधनों की रक्षा तथा उनका विकास करना, राष्ट्रीय संसाधनों का दोहन किसी बाहरी शक्तियों को न करने देना, देश के आर्थिक ढांचे का विकास देश की जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप मांग और पूर्ति की चेन देश में ही सुचारू रूप से चलाना, आधुनिकतम तकनीकी का विकास अर्थव्यवथा को सुदृढ करने के लिए करना इत्यादि आर्थिक राष्ट्रवाद के द्योतक हैं।
छद्म राष्ट्रवाद का रूझान अंकुरित होने का मौका
यदि इतिहास में झाकें तो पता चलता है 1890 के दशक में जब भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ कई संगठन बन रहे थे तो 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन ए. ओ. ह्यूम की अगुवाई में उन तत्कालीन उच्चमध्य वर्गीय बुद्धिजीवियों से किया गया । जिसमें से अधिकांश बिलायत में शिक्षा प्राप्त करके आये थे । तभी दादाभाई नोरोजी सरीखे लोगों ने अर्थव्यवस्था को स्वदेशी बनाने तथा भारत में कच्चे माल का अंधाधुंध निर्यात को रोकने तथा भारत की प्राकृतिक संपदा के प्रवाह को रोकने के लिए आवाज उठाई और ड्रेन आफ वेल्थ (संपदा का प्रवाह) नहीं होना चाहिए का नारा दिया। यह विचार आर्थिक राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दर्शाता है। गरमपंथी नेताओं ने भी इसकी आवाज बुलंद की इसके बाद गांधीजी ने चरखा, खादी तथा स्वदेशी सामान इस्तेमाल करने का नैतिक पाठ पढ़ाया कुछ समय तक जनता में इसके प्रति उत्साह की भावना भी रही लेकिन जब राजनैतिक रूप से साम्राज्यवादियों के साथ समझौतावादी नीतियों पर अमल किया गया तो राष्ट्रवाद की सच्ची भावना के फलने-फूलने के बजाय छद्म राष्ट्रवाद के रूझान को अंकुरित होने का मौका मिल गया।
क्रमश:
लेखक भारत सरकार के आवासन एवं शहरी कार्य मंत्रालय के प्रशासनिक अधिकारी पद से अवकाश प्राप्त हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेखन और संपादन से जुड़े हैं।

