By G D Pandey
क्रमश:
आर्थिक राष्ट्रवाद की भावना ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक संसाधनों के दोहन का शिकार बन कर रह गयी । चरखे से कताई करके खादी के कपड़े बड़ी-बड़ी विदेशी मशीनों से तैयार टैरीकोट, टेरीलीन जैसे तुलनात्मक रूप से काफी सस्ते कपड़ों को भारत में बाजार मिल गया। स्वदेशी सामान की जगह सस्ता विदेशी सामान लोगों की क्रय शक्ति यानि खरीद क्षमता (परचेजिंग पावर) के अन्तर्गत लोकप्रिय होने लगा। आर्थिक क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने राष्ट्रीय कंपनियों को उसी तरह खा दिया जिस तरह बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। अत: आर्थिक राष्ट्रवाद और स्वावलंबी आत्म निर्भर अर्थव्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए तथा विदेशी कंपनियों को भारत में बेरोक टोक मिल रहे ठेके तथा खुले बाजार के परिवेश में
‘आत्मनिर्भरता की भव्य इमारत’ का मौजूदा नारा महज एक काल्पनिक तथा बेबुनियाद लगता है।
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ई-कामर्स तथा ई-मार्केटिंग के जरिये घर- घर पहुंच रहा विदेशी सामान
भारत में प्रतिव्यक्ति आय ( पर कौपिटा इन्कम ) तथा आम जनता की माली हालत बहुत दुर्बल होने के कारण महंगा सामान खरीद पाना उनकी क्रय शक्ति की परिधि से बाहर की बात है। इसीलिए सस्ता या कम से कम कीमत वाला सामान की मांग बहुत अधिक रहती है। भारत के सूक्ष्म, लघु और मझौले उद्यमों (एम.एस.एम.ई) को चलाने वाले उद्यमियों का स्वाभाविक लक्ष्य रहता है कि कम लागत में सामान तैयार हो और अधिक से अधिक कीमत में यह बिक जाय। भारत के बाजारों में बहुराष्ट्रीय तथा विदेशी कंपनियों के प्रोडक्टस देश में तैयार होने वाले प्रोडक्टस से बहुत सस्ते होते हैं और ई-कामर्स तथा ई-मार्केटिंग के जरिये आम जनता तक सुविधाजनक तरीके से घर-घर पहॅुच जाते हैं। मार्केट में प्रतिस्पर्धा करने तथा विदेशी माल की स्वदेशी माल तथा प्रोडक्टस की मांग तथा पूर्ति की चेन को सुचारु रूप से चलाने के लिए जो व्यवस्था और आर्थिक तंत्र चाहिए वह न तो
औपनिवेशिक दासता के युग में था और न ही अब साम्राज्यवाद के तहत नव औपनिवेशिक आर्थिक वैश्वीकरण के युग में। वर्तमान आर्थिक परिवेश में भारत के बाजारों में कुल उपभोग की वस्तुओं का लगभग 80से 90 प्रतिशत हिस्सा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों अथवा किसी विदेशी कम्पनी के प्रोडक्टस का है। भारत के इलेक्ट्रानिक मार्केट में अकेले चीनी कंपनियों के लगभग 90 प्रतिशत इलेक्ट्रानिक उपकरण बिकते हैं।
मेड इन चाइना वाले सामान का विरोध करने की ऊपरी तौर पर
मोबाइल और टेलीविजन से लेकर छोटी से छोटी आइटम तक विदेशी कंपनियों द्वारा या तो उनके देश में या फिर भारत में तैयार करने के लिए कोलेबोरेशन करके विदेशी टैक्नौलाजी से बनी हुई हैं, और भारतीय मार्केट में ऐसी ही उपभोक्ता प्रोडक्टस का वर्चश्व एवं बोलबाला है। ग्राहकों की पसंद के ऐसे प्रोडक्टस भारत में अरबों खरबों का टर्न ओवर दे रहे हैं। ऐसे में ‘मेक इन इंडिया’ का सब्जबाग भी भूल गया और स्टार्ट अप से कोई नये उद्यमी आगे नहीं आ पाये। इस कोरोना काल में जब करोड़ों करोड़ श्रमजीवी असंगठित क्षेत्र के मजदूर, प्रवासी कामगार महानगरों तथा अन्य शहरों से त्राहि त्राहि में अपने गृह राज्यों तथा गांवों में पहुंचे हैं तो भारत सरकार और प्रधानमंत्री को उनके लिए ‘आत्म निभर्रता की भव्य इमारत’ गांवों में खड़ी करनी है।
इसके अलावा पूरे देश को आत्म निर्भर बनाने के लिए विदेशों में निर्मित सामान का इस्तेमाल नहीं करने की सलाह दी जा रही है। टैैक्नौलोजी के क्षेत्र में, सोशल मीडिया में चल रही अनेकों एप विदेशी कंपनियों की हैं। भारत में अभी कोराना काल में कुछ घरेलू एप लांच की हैं जो सिर्फ कोविड-19 महामारी से संक्रमित लोगों की सूचना से संबंधित आरोग्य सेतु एप तथा कुछ आयुर्वेदिक दवाइयों की जानकारी से संबंधित एप हैं। चीन के साथ लद्दाख की सीमा पर चल रहे तनाव के बीच भारत में मेड इन चाइना वाले सामान का विरोध करने की ऊपरी तौर पर बातें कही जा रही हैं परन्तु अंदर से रवैया कुछ और ही है। टिक टाक एप सहित 59 चाइनीय एप पर भारत ने प्रतिबंध कर दिया है जबकि अन्य चाइनीज सामान बाजार में पूर्ववत है।
भारत में अकेले चीन की लगभग एक सौ कंपनियां
यदि हम वास्तविकता को समझने की कोशिश करें तो मालूम पड़ता है कि लाकडाउन के दौरान उत्पन्न आर्थिक संकट तथा मार्केट में मांग और पूर्ति की चेन के बदलते स्वरूप के मद्देनजर तथा गलवान घाटी में 15 जून 2020 की घटना से उत्पन्न देशव्यासी आक्रोश के मौके पर आत्मनिर्भरता तथा चाइनीज सामान का बहिष्कार तथा स्वदेशी सामान तैयार करने की लोकलुभावनी वाकपटुता उजागर कर दी गयी है। इससे पूर्व सन् 2017 में डोकलाम में भारत-चीन सैन्य तनाव के समय भी इसी सरकार ने चीनी सामान की खरीद करने के बजाय अपने देश में ही माल बनाकर आत्मनिर्भर बनाने के लिए ‘मेक इन इंडिया’ की नीति को पुरजोर कोशिश के साथ कामयाब बनाएंगे कहा था।
लेकिन हैरत की बात यह है कि सन् 2017 में चीन का भारत में कुल व्यापार 60 बिलियन डालर का था जो अब बढ़कर 65 बिलियन डालर हो गया। इससे सबित होता है कि हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ और। इस समय भारत में अकेले चीन की लगभग एक सौ कंपनियां
अपना व्यापार कर रही हैं। भारत के अडानी तथा अम्बानी ग्रुप भी चीन के साथ कोलेब्रेशन में व्यापारिक गतिविधियां चला रहे हैं । केवल चीन ही नहीं अमेरिका, रूस, दक्षिण कोरिया, फ्रांस, जर्मनी, इटली इत्यादि बड़े-बड़े देशों की कंपनियां भारत में मांग और पूर्ति की चेन से मार्केट में काबिज हैं।
किसी न किसी विदेशी कंपनी का आर्थिक तथा तकनीकी वर्चस्व बरकरार
भारत के चंद पूंजीपति जिनमें अडानी और अम्बानी घराने शीर्ष पर हैं, उनका चीन सहित अन्य कई विदेशी कंपनियों के साथ व्यापार में साझेदारी चल रही है और कुछ आगे चलने के लिए समझौते हो रहे हैं । अभी एक आर्थिक कोरिडोर जिसका नाम बी. सी. आई. एम. अर्थात बग्लादेश, चाइना, इंडिया और म्यामार के बीच जो इकोनोमिक कोरिडोर बनेगा उसका समझौता प्रस्ताव भारत के अडानी ग्रुप और चीन की पावर कन्स्ट्रक्शन कारपोरेशन आफ चाइना के बीच फाइनल मुहर लगने के स्तर पर पहुंचा हुआ है। भारत में मौजूदा अर्थ व्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में किसी न किसी विदेशी कंपनी का आर्थिक तथा तकनीकी वर्चस्व बरकरार है।शासक वर्ग हिमायती सरकार द्वारा विश्व की महाशक्तियों खासकर अमेरिका, रूस और यूरोपीय देशों से सामरिक हथियारों तथा उपकरणों की खरीद फरोख्त और आर्थिक क्षेत्र में भारत के बाजार के लिए माल तैयार करने, इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने संबंधी अनेकों एमओयू ( मैमोरैन्डम आफ अंडरस्टैंडिंग) यानि समझौता प्रस्तावों पर हस्ताक्षर या तो पहले ही हो चुके हैं या वर्तमान में चल रहे हैं।
कोरोना काल तथा पोस्ट कोरोना काल में भी ऐसे समझौते जारी हैं और जारी रहेंगे क्योंकि भारत का धनाड्य और नव धनाड्य वर्ग अपनी प्रतिनिधि सरकार को येन केन प्रकारेण अपने हितों के अनुरूप काम करने के लिए तैयार कर लेंगे ऐसी परिस्थितियों में सच्ची देशभक्ति, सच्चा राष्ट्रवाद, आर्थिक राष्ट्रवाद के स्थान पर आर्थिक साम्राज्यवाद तथा राजनीतिक व्यक्तिवाद के चलते
आत्म निर्भरता की भव्य इमारत बनाने की बातें दिग्भ्रमित करने वाली लगती हैं।
खुलेपन की आर्थिक नीतियों को खुले दिल से लागू किया जा रहा
केरोना काल में बेरोजगारी तथा बदहाली का आलम किसी छिपाये नहीं छिप सकता। शर्मायेदार परस्त सरकारों का ध्यान इस तरफ नहीं के बराबर जाता है। देश में सरकारी संस्थान संयंत्र पब्लिक सेक्टर का विकास तथा देश के ऊपर सरकारी उद्योग धंधे स्थापित करके आत्म निर्भरता की दिशा में आगे बढ़ने के बजाय सरकारी संस्थानों, संयंत्रों तथा सरकारी उपक्रमों को बीमार घोषित करने, उन्हें गैर उत्पादी मानकर बंद करने तथा नागरिकों, जिनमें बहुसंख्यक आम मेहनती आदमी शामिल हैं को अपना निजी काम शुरू करने की लच्छेदार बातें समझाने की पुरजोर कोशिश जारी है। दूसरी तरफ विदेशी कंपनियों, निजी देशी कंपनियों तथा पब्लिक सेक्टर का नीजिकरण करने और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में कल कारखाने लगाने और पूंजी निवेश के लिए सादर आमंत्रित करते हुए उदारीकरण तथा खुलेपन की आर्थिक नीतियों को खुले दिल से लागू किया जा रहा है। एक तरफ परोपकारी बनते हुए कोरोना काल में बीस लाख करोड़ के आर्थिक पैकज की घोषणा की जाती है और हर आदमी को अपनी अपना निजी काम शुरू करने के लिए दस हजार रुपये प्रतिव्यक्ति देने की घोषणा भी की गयी थी।
सिर्फ घोषणाओं में हो रही बड़ी बड़ी बातें
देश के कितने लोगों को अभी तक यह घोषित धन राशि मिली है? कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। सरकार ने जो योजना आत्म निर्भरता तथा स्वरोजगार के लिए अपने स्तर से बनानी चाहिए थी, उसके बजाय आम आदमी पर यह उत्तरदायित्व थोप दिया गया कि वे अपने लिए स्वयं ही रोजगार की व्यवस्था करें। देश में कुल कितने बेरोजगार हैं, कितने संगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं? कितने असंगठित क्षेत्र में मजदूर हैं ?कितने प्रवासी मजदूर हैं? देश में वे लोग किन-किन क्षेत्र में स्वरोजगार ढूढेंगे? स्वरोजगार का स्वरूप क्या होगा? कौन से राज्य में कौन सी योजना बनी है? इन सब सवालों का न तो कोई उत्तर उपलब्ध है और ना ही कोई डाटाबेस थियोरी में कहा गया है कि यह आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था नई होगी और टैक्नोलाजी ड्रिवन होगी । अभी तो यह भी निश्चित नहीं किया है कि टैक्नोलाजी ड्रिवन अर्थव्यवस्था का स्वरूप क्या होगा, उसके लिए टैक्नोकैट कहां से आएंगे ? कुल मिलाकर यह एक व्यक्तिवादी विचार लगता है, राष्ट्रवादी नहीं । राष्ट्रवादी व देशभक्त विचारधारा के साथ सर्वप्रथम ठोस योजना और कार्ययोजना बनानी होगी, तभी उसकी व्यावहारिकता देखी जाएगी।
लेखक भारत सरकार के आवासन एवं शहरी कार्य मंत्रालय के प्रशासनिक अधिकारी पद से अवकाश प्राप्त हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेखन और संपादन से जुड़े हैं।
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