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कालाहाण्डी ज़िले में ख़रीफ़ की धान ख़रीदी प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही विवादों में घिर गयी है। अपने बकाये को लेकर मिलर्स और आपूर्ति विभाग के बीच ज़ारी विवाद के चलते मिलर्स ने कह दिया है कि जब तक बकाये का समाधान नहीं हो जाता, वे धान ख़रीदी में सहयोग नहीं करेंगे।
देखा जाये तो मिलर्स एवं आपूर्ति विभाग की इस खींचतान का खामियाज़ा अंततः किसानों ही को भुगतना पड़ेगा और उन्हें अपनी उपज बिचौलियों के हाथ औने-पौने दामों पर बेचने विवश होना पड़ेगा।
इतना ही नहीं विवाद के चलते धान संग्रहण एवं मिलिंग प्रक्रिया से सरोकार रखने वाले हज़ारों कामगारों की रोजी-रोटी भी प्रभावित होगी। अफ़सोस तो इस बात का है कि सब कुछ जानते हुये भी ज़िला प्रशासन इस पर मौन साधे हुये है, जिससे समस्या गम्भीर रूप ले सकती है।
ज्ञातव्य है कि वर्ष 2019-20 की चावल संग्रहण प्रक्रिया अब अपनी समाप्ति पर है एवं मिलर्स का कहना है कि परिवहन, अनलोडिंग तथा गोदामों में धान के रखरखाव आदि के तौर पर 25-30 करोड़ रुपये एवं साढ़े सात लाख खाली बारदाना विभाग पर बाक़ी है, अतः जब तक उनके बकाये का हिसाब नहीं हो जाता, वे धान ख़रीदी में भाग नहीं लेंगे और अपने इस निर्णय पर वे ज़िलाधीश का भी ध्यानाकृष्ट कर चुके हैं।
इसके विपरीत ज़िला मुख्य आपूर्ति अधिकारी अशोक दास का कहना है कि मिलर्स का विभाग पर कोई बकाया नहीं है, जिसे लेकर एक अजीबोगरीब विरोधाभास की स्थिति निर्मित हो गयी है। प्रश्न उठता है कि क्या मिलर्स एवं आपूर्ति विभाग के बीच होने वाले कामकाज का कोई ब्यौरा नहीं रखा जाता और पूरी प्रक्रिया महज़ मौखिक तौर पर चलती है ? जानकार इसे एक अत्यंत हास्यास्पद स्थिति के रूप में देखते हैं।
बहरहाल, विवाद अनसुलझा रहा, तो निश्चित तौर पर उसका कुप्रभाव किसानों पर ही पड़ेगा, जो कि पहले ही से दलालों के चक्रव्यूह में फंसे हुये हैं। मिलर्स का कहना है कि आपूर्ति विभाग की त्रुटिपूर्ण नीतियां हमेशा ही उनकी परेशानी का सबब बनती हैं एवं जिसके चलते उन्हें बार-बार नुक़सान उठाना पड़ता है। विभागीय क्रियाकलापों में पारदर्शिता का घोर अभाव है, जिस पर गौर करने की ज़रूरत है। मिलर्स के अनुसार वर्ष 2018-19 की अवधि में परिवहन ख़र्च 10 किलोमीटर तक प्रति किलोमीटर हेतु 22.50 रुपये दिया जाता था, जिसे वर्ष 2019-20 में घटा कर 18.50 रुपये कर दिया गया, जिसके चलते मिलर्स को कोई छह करोड़ का नुक़सान उठाना पड़ रहा है। तेल की निरन्तर बढ़ती क़ीमतों के बीच परिवहन ख़र्च में कटौती किया जाना उनके लिये घाटे का सौदा बन गया है।
इसी प्रकार एक क्विंटल चावल की पैकेजिंग हेतु 25 किलोग्राम की चार बोरियों की आवश्यकता होती है एवं नियमानुसार चार बोरियों में से दो विभाग द्वारा दिया जाना चाहिये। इस मद में विभाग पर गत वर्ष की साढ़े सात लाख बोरियां बाक़ी हैं।
आंकड़ों के अनुसार शुरुआत में ज़िले में कुल 119 चावल मिलें सक्रिय थीं, परन्तु सदैव घाटे में रहने के कारण उनमें से 47 मिलें बन्द हो चुकी हैं एवं वर्तमान में महज़ 72 मिलें ही शेष बची हैं, जिनमें भी अनेक की हालत ठीक नहीं है। यदि नीति में बदलाब नहीं किया गया, तो ज़ल्द ही और मिलें भी बन्द होने की कगार पर होंगी। नियमानुसार कस्टम को छोड़ मिलर्स पर और कुछ भी करने की ज़िम्मेदारी नहीं होती, पर दोषपूर्ण नीति के चलते मिलर्स एवं किसान उभय परेशान हैं। अतः वर्तमान हालात में सरकारी हस्तक्षेप अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा आगे चल कर किसान एवं कामगार सभी के लिये नई परेशानी खड़ी हो सकती है।